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अवतरणिका विशिष्ट विशुद्ध नामक पद्म है, और दोनों भ्र के ठीक बीचमें दो दलविशिष्ट आज्ञा नामक पद्म हैं। ये सब पद्म चक्र भी कहते हैं। इसीलिये इन छः पद्मको षट्चक्र भी कहते हैं। इन सबके ऊपर मस्तिष्कमें सहस्र दल-विशिष्ट सहस्रार नामक पद्म है। (१म चित्र देखो ) सुषुम्ना इन सातों पद्मको भेद करके खड़ी है, ठीक जैसे कि सूत में सात पद्म गूंथा हुआ है। इनहीं सात पद्मको सप्त स्वर्गवा सप्तव्याहृति-स्थान कहते हैं।
नाडीमात्रही अन्तःशून्य (खोखला ) नलके सदृश होता है। सुषुम्ना भी वैसी ही है। सुषुम्नाके भीतर स्वाधिष्ठानसे लेके ऊपर तक फैला हुआ वा नाम करके एक नाड़ी है और उसके भीतर मणिपुरसे लेके चित्रा नाम करके एक दूसरी नाड़ी है। इन तीन नाड़ियों के आकाशमय साधारण छिद्रको ब्रह्मनाड़ी कहते हैं । इस ब्रह्मनाडीका आकार योगीगण कहे हैं कि "केशाग्रस्य कोटीभागैकमार्ग” अर्थात् यह अति सूक्ष्म अतीन्द्रिय बुद्धिग्राह्य पदार्थ है।
इड़ा और पिङ्गला नामक दो नाड़ियां यथाक्रमसे मूलाधारस्थ सुषुम्ना-मुखके वाम और दक्षिणसे उत्थित होकर प्रत्येक पद्मको वेष्टन करके परस्पर सुषुम्नाके साथ काटकर युक्त होते हुये श्राज्ञा पर्य्यन्त उठा है। विशुद्धके ऊपर गईन और मस्तकके खोलीके ठीक सन्धिस्थलको अर्थात् मस्तकको पीठके तरफ झुका देनेसे जिस जगह पर गढ़ा हो जाता है, उस स्थलको मस्तक-प्रन्थि कहते हैं। वह तीन नाड़ियां जितने स्थानमें परस्पर काटकर युक्त हुये हैं; विशुद्ध चक्रके ऊपर यह मस्तक-प्रन्थि भी उसमेंसे एक है। यहाँसे सुषुम्ना मस्तकके खोपड़ीके भीतर प्रवेश किया है, और इड़ा और पिङ्गला यथाक्रम, दहिने और बांये तरफसे होते हुये दोनों भ्र के बीचमें पुनराय