________________ 402 श्रीमद्भगवद्गीता पितृलोगोंकी आराधना करते हैं, उन सबके अन्तःकरणमें पितृलोकके संस्कार दृढ़ीभूत हो करके शरीरान्तमें पितृलोकमें जाकरके उसी लोक मोग करना पड़ता है। जो लोग भूतादिके याजक हैं, उन सबके अन्तःकरण पाळचभौतिक योनिमें भ्रमण करते रहता है। इन देवतापितृ-भूतोंके उपासकगण पुनरावृत्तिको पाते हैं, अर्थात् जन्म मरण भोग करते रहते हैं। परन्तु जो साधक मद्याजी अर्थात् मेरी उपासना करते हैं, वह लोग मुझको प्राप्त होकर “मैं” में मिलकर "मैं" हो जाते हैं; उन लोगोंकी और पुनरावृत्ति नहीं होती है। . : साधक ! विचार कर देखो, जब तुम पहिले पहल साधना प्रारम्भ किये थे, तब तुम जिन सब बाहरवाले मूर्ति लेकर कारबार खोले थे, वही सब मूत्ति तुम्हारे चित्तमें उठ जाकर प्रत्यक्ष तेजस मूर्तिसे तुम्हारे चित्तको एकाग्रता आकर्षण करते थे या नहीं? उन सब मूर्तिका आकार रहनेसे भी, स्थूल शरीरके सदृश वे छायाधारी नहीं थे, वही सब देवता हैं; कारण यह है कि, जिन सबका छाया न पड़े, वह सब ही देवता हैं। और जो कभी कभी कितने मरे हुए मनुष्यको देखने में भाता है, वह सब पितृलोक हैं। और भी कितना अभूतपूर्व अदृष्टपूर्व इस जन्ममें कभी जिसे न देखा हो ऐसा कि कभी सुना भी न होगा, ऐसे विकट विकट स्वरूप भी सामनेमें आकर खड़े होते हैं; उन सबको भूत कहते हैं। और भी भूत कहते हैं-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाशको; यह सब भी देखनेमें आता हैं / क्रियामें बैठने के समय पहिले पहल जो कुछ अधिक अधिक मनमें आवे, प्रायः उस दिनकी क्रिया में उसीकी छवि अन्तःकरणमें खेलकर चित्तके ऊपरमें उठने नहीं देता। उस समय यदि इनमेंसे किसी एकको लेकर शरीर त्याग हो जाय तो जितना दिन अव्यक्त-भावमें रहना पड़े, अर्थात् जितना दिन पुनः देह धारणकर जन्म लेना न हो, तितना दिन उस लोकका सम्भोग करके बल संचय करना पड़ता है। पश्चात् उसी बल