________________ नवम अध्याय . 386 मात्महारा होकर दौड़ा था, सृष्टि भोगके पश्चात् पुनः जो 'मैं' जहाँ से दौड़ा था उसी 'मैं' में आ पहुँचा, यही हुआ मेरा “धा"। इसीलिये “मैं” स्वधा हूँ। ___अहं औषधं"। औषध कहते हैं जो रोग नाश करके जीवको बँचा रक्खे। जीव जबतक जीव रहता है, तबतक किसी प्रकारसे उसको बँचनेका उपाय नहीं है / जीवका कार्य जन्म और मरण भोग करना ही है। उस जन्म-मरण भोगको ही भवव्याधि कहते हैं / इस व्याधिके वैद्य श्रीगुरुमहाराज हैं। उनका श्रीमुखनिःसृत जो “मैं” वाचक शब्द है, उसीको ही औषध कहते हैं। उसका प्रयोग करते करते, वह शब्द जन्म-मरण रूप जीवत्वकी क्रिया शेष कराकर “मैं" त्वमें ला फेंकके “मैं” करा देता है, आप भी 'मैं हो जाता है। इसलिये औषध भी 'मैं' हूँ। "अहं मन्त्रः”। मनका त्राण जो करे, वही मन्त्र है। मनका धर्म संकल्प और विकल्प करना है। एक छोड़ना, एक पकड़ना,-एक छोड़ना, एक पकड़ना; जोंकके सदृश मनका यह कार्य अविश्रान्त चलता ही रहता है। यह मन जब सम्पूर्णरूप वृत्तिशून्य हो पड़ता है, मनका वह निवृत्तिक अवस्था ही 'मैं हूँ। इसलिये 'मैं' मन्त्र हूं। __ "अहं आज्यं"। आज्य कहते हैं हविको। जो पुनर्भव वही "हवि" है। क्योंकि, हवनसे हुत वस्तु सूक्ष्मत्व ले करके वायुतत्त्वके साथ मिल करके आकाशमें उठकर पांचो तत्त्रको ही शोधन कर देता है। अर्थात् बली कर देता है। पुनः नवीन शक्तिसे शक्तिमान हो करके प्रत्येक तत्त्व सहस्र मुखसे क्रिया करने लगता है। इस क्रियासे समस्त प्रजाशरीरमें समयोचित आवश्यकीय शक्ति सञ्चार होती है। इसलिये वह सब प्रजा भी फिर सुन्दर सुन्दर नवीन प्रजाको उत्पन्न करती है। यह बहिर्जगत् की क्रिया हुई। और जब अन्तर्यागमें, साधक ! तुम "मैं" में "मैं' को हवन करो, वह भी प्रत्यक्ष करके समझ लो।।