________________ नवम अध्याय 411 कुछ भी परोक्ष नहीं रहता, यही तुम्हारा राजर्षि भाव है। इस अवस्थामें स्थित तुम निम्नदृष्टि त्याग करके अवश्य एकमात्र इस "मैं" का भजन करो // 33 // मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु / मामेवैष्यसि युक्तवेवमात्मानं मत्परायणः // 34 // अन्वयः। मन्मना ( मद्रचित्तः) मद्भक्तः (मम एष भक्तः) मद्याजी (मत्पूजनशोलः) भव, मां नमस्कुरु; एवं (एभिः प्रकारः) मत्परायणः ( सन् ), आत्मानं (चित्त) युक्त्वा ( मयि समाधाय) मा एव ( परमानन्दरूपं) एष्यसि (प्रास्यसि ) // 34 // . अनुवाद। मद्रतचित्त, मद्भक्त और मद्याजी हो जाओ; मुझको नमस्कार किया करो, इस प्रकारसे मत्परायण होकर चित्तको हममें समाहित करके मुझको ही प्राप्त होओगे // 34 // व्याख्या। कर्मकी परिसमाप्ति करके आज्ञामें उठकर उपासना में प्रवृत्त होनेसे पच कर्मेन्द्रिय, और पञ्च ज्ञानेन्द्रिय बहिर्विषयसे समेट आकर अन्तरके भीतर संकुचित हो जाता है, तब एकमात्र मनोमय क्रिया अर्थात् विशुद्ध अन्तःकरणकी क्रिया चलती रहती है। उसी क्रियामें जिस जिस क्रम से आज्ञासे सहस्रारमें उठकर "मैं" हुना जाता है, इस श्लोकमें उसीको दिखाकर भगवान् इस अध्यायका उपसंहार करते हैं। प्रथमतः “मन्मना" होने पड़ता है, अर्थात् आज्ञामें स्थिर होनेके पश्वात् जो "कोटिसूर्य प्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं” ज्योतिमण्डल प्रकाश पाता है, उसमें मनोनिवेश करने पड़ता है, अर्थात् अन्तःकरण के चारों वृत्तिको ही पूर्ण मात्रासे उसमें लगाने होता है; पश्वात् मानस नेत्र उस ज्योतिकी ठीक मध्यस्थानमें युक्त होनेसे ही, अन्तःकरणकी संकल्पात्मिका वृत्ति एकदम मिट जाकर निश्चयात्मिका वृत्ति प्रबलसे