________________ 368 श्रीमद्भगवद्गीता छोड़कर स्वस्वरूप में अवस्थानका नाम पुण्य है; अर्थात् मैं जब देहाभिमान छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हुआ, तब मेरी चञ्चलता नष्ट हो गई; उसी चञ्चलता शून्य अवस्थाको ही पुण्य कहते हैं। इसका व्यतिक्रम ही पाप है। जब तक स्वस्वरूपमें अवस्थान है, तबतक ही अनन्तत्व वा ब्रह्मत्व है। यह विशाल, निस्तरंग, अवधिरहित है / जब तक साधक सबीज समाधिमें भी इस विशाल ब्रह्मके संस्पर्श सुख अनुभव करता है, तबतक साधकमें माया विकारका कुछ भी स्फूरण नहीं होता। जैसे जैसे उस अवस्थाका शेष होता रहता है, अर्थात् वह गर्भस्थ संसार-बीज समाधि-भङ्गके लिये संसार-रसको ग्रहण करता रहता है, तैसे तैसे धीरे धोरे मरजगत्का देहाभिमान भी आता रहता है, और वह स्वरूप स्थितिकी स्थिरत्व कम होते हुए चचलताकी वृद्धि होती रहती है। यह जो स्थिरत्व और चञ्चलत्व है, यह दो स्तर वा स्वर्ग है; यह दोनों ही त्रिगुणमयी मायाकी लीला हैं। इसमें आवागमन अर्थात् जाना आना सिद्ध करता है, क्योंकि, क्रिया करके क्रिया की परावस्थामें रहनेका जो अभिलाष है, वह भी काम है // 21 // अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पय्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् // 22 // अन्वयः। अनन्याः ( सन्तः ) मां चिन्तयन्तः ये जनाः पर्युपासते, अहं तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं ( योग: अप्राप्तस्य प्रापणं क्षेमस्तद्रषं तदुभयं ) वहामि ( प्रापयामि ) // 22 / / अनुवाद / जो लोग अनन्य होकर मेरी चिन्ता करते करते उपासना करते है, मैं उन्हीं नित्ययुक्त साधकोंके योग और क्षेमको बहन करता हूँ // 22 // है। देहाभिमान तबतक वायुका क्रिया है जबतक / वायु बाहर नहीं हुआ अथच देहके भीतर आकाशमें सूक्ष्मरूपसे विश्राम लिया उसी विश्राम भुक्त अवस्था को हो "" कहते हैं / / 21 //