Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 413
________________ 374 श्रीमद्भगवद्गीता शून्य-प्रत्यक्ष जाज्वल्यमान चक्षुकी हक शक्तिके सामने धर्म्य = अविरोधि-"अविरोधात्तु यो धर्मः सः धर्मः"। जिससे किसीके साथ विरोध उपस्थित न होय, उसीको धर्म कहते हैं। "धर्म धारयते प्रजाः”। प्रजा कहते हैं प्रकृष्ट रूपसे जिसका उत्पत्ति होता है; ऐसा होनेसे ही उत्पत्ति, स्थिति, और भंग जिसमें है, वही प्रजा है, अर्थात् परिणामी जो कुछ है, वही प्रजा है। इस परिणमनता को जो धारण करके हैं, अर्थात् जो स्वयं 'अपरिणामी' है वही धर्म है। इस धर्ममें जिस करके पहुंचा जाय, उसी को "अवगम" कहते हैं। यह जो धर्म है वह अव्यय अर्थात् नित्य है। सुन्दर सुखसे इसको किया भी जाता है और इसीसे अव्ययत्वमें संयुक्त भी हुश्रा जाता है // 2 // अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मास्यास्य परन्तप / अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवमनि // 3 // अन्वयः। हे परन्तप / अस्य धर्मस्य अश्रद्दधानाः ( अद्धाविरहिताः ) पुरुपा: मां अप्राप्य मृत्युसंसारवमनि ( मृत्युय्याप्त संसारमार्गे ) निवर्तन्ते // 3 // अनुवाद। हे परन्तप ! इस धर्मके प्रति श्रद्वाविहनि पुरुष मुझ को न पा करके जन्म-मृत्युरूप संसार पथमें ही प्रत्यावर्तन करता है // 3 // व्याख्या। अबाधतः गुरुवाक्य पालन करके चलने का नाम श्रद्धा है। जिस महाशक्तिसे गुरुवाक्य पालनका सब कुछ बाधा-विन्न नाश होता है, वही श्रद्धा है। जिसमें इस महाशक्ति का अभाव है, वही अश्रद्दधान वा कापुरुष है। यह कापुरुष उस पूर्वकथित द्रष्टास्वरूपमें वा धर्ममें रह करके प्राकृतिक दृश्यका खेल देखने नहीं पाता, इसलिये “मैं' को अर्थात् ब्राह्मीस्थितिको प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके रास्ते में आता है, अर्थात् जन्म मृत्यु भोग करता रहता है // 3 //

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