Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 420
________________ नक्म अध्याय चिच्छायोके साथ मिलकर प्रकृति नाना प्रकारकी घष्टि कर डालती है। वही सब सृष्टि चर ( जो चल फिर कर घूमता है, जैसे जीव जानवर ) और अचर (जो चल नहीं सकते, जैसे पेड़ पत्थर ) है, यह सब भी उस दृशक्तिके विकारसे उत्पन्न श्राकाशके ऊपरके स्वरूप सदृश परिवर्तनशील उत्पत्ति-स्थिति-लय धमी है। परन्तु द्रष्टाका दृकशक्ति और मायाका संयोग ही उसका हेतु है। यह तो असल बात हुई। इसमें फिर धड़-मुड़की टेढ़ी टेढ़ाई ढंग कितना है !-मैं करता हूँ, मैं बोलता हूँ, यह मेरे, वह मेरा, हमसे बड़ा कौन है ! हाय ! हाय ! हाय ! हँसी भी आवे ! रोलाई भी आवे। // 10 // अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् / परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् // 11 // मोघाशा मोधकर्माणो मोज्ञाना विचेतसः / राक्षसीमासुरों चैव प्रकृति मोहिनों श्रिताः // 12 // अन्वयः। मोहिनी राक्षसी आसुरों च एव प्रकृतिं श्रिताः (आश्रिताः) मोघाशाः मोघकाण: मोघज्ञानाः विचेतसः मूढाः ( जनाः ) मम भूतमहेश्वरम् परं भावं अजानन्तः ( सन्तः ) मानुषीं तनु आश्रितं मां अवजानन्ति ( अवमन्यन्ते) // 11 // 12 // अनुवाद। मोहकरो राक्षसी और आसुरी प्रकृतिके आश्रय करके ही मोषाशा, मोषका, मोषज्ञान, विक्षिप्तचेता मूढ़ ( जना ) मेरे भूतमहेश्वरके परममाषको न जानकर मानुषी तनुधारी मेरी अवज्ञा करते है // 11 // 12 // व्याख्या। जिसके मन है उसीको मानुष कहते हैं। उसी मनका धर्म सङ्कल्प और विकल्प करना है। उस मनोधर्ममें जो कोई भानुरता दिखावे, अर्थात् संकल्पमें हो वा विकल्पमें ही हो,-कार्य सिद्धि न कर सकनेसे ही जैसे “मैं मर गया", "मेरे जैसे सर्वस्वान्त हु ऐसा अन्धतामिश्रमें डूब जाता है, वही मानुषी तनुके आधीन है।

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