Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 416
________________ नवम अध्याय अनुवाद / सर्वत्रगामी महान् वायु जिस प्रकारसे आकाशमैं नित्य अवस्थित है, समुच्चय भूत भी हममें उसी प्रकारसे अवस्थित है जानना // 6 // व्याख्या। जैसे आकाश देखनेमें असीम है, आकाशके पास वायु ससीम हो करके भी अपने अणु परमाणुमें आकाशको मिलाय के असीमका साज सज लिया है, परन्तु जैसे आकाशमें उसका कोई छाप न लगा; इसी तरह जितने भूत हैं उन सबके अणु परमाणुमें ओत-प्रोत भावसे मुझको मिलाकर 'मैं' साजकर अपने सबको छिपाकर मेरा स्वरूप दिखाते हैं। परन्तु "मैं" इन सबके किसी बातमें किसी प्रकारसे लिप्त नहीं हूँ। इसलिये कहता हूँ कि, आकाशमें वायु . सदृश 'मैं' में भूतसमूह है, जान लेओ॥ 6 // सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् / कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् // 7 // अन्ययः। हे कौन्तेय! कल्पक्षये सर्वभूतानि मामिको प्रकृतिं यान्ति ( मायायां लीयन्ते ), कल्पादौ पुनः अहं तानि विसृजामि // 7 // अनुवाद। हे कौन्तेय / कल्पक्षयौ / प्रलय कालमें) मत समूह मदीय प्रकृतिमें लीन होता है और कल्पादिमें (सृष्टि कालमें ) फिर मैं उन सबको सृजन करता हूँ॥७॥ . व्याख्या। जलका घर द्वार समुद्र है। वायुके शोषण-शक्तिसे जल शोषित हो करके आकाशमें उड़ जाता है, जैसे गरम भातका भाप। वह जो पृथिवीकी सर्वोच्च पर्वतकी सर्वोच्च शिखरकी सर्वोच वृक्षकी सर्वोच्च स्थानकी पत्ति किशलय राग करके नवीन रसमें रजित होकर दर्शन करनेवालोंका मन भुलाता है, देखते हो, उसकी वह रसविन्दु भी उसी महासागरका जल है। वायु द्वारा शोषित जलकण आकाशमें उठकर वायुके सहारासे मेघरूप धरके वर्षणसे समस्त पृथिवीको खोंचकर नदी रूपसे समुद्र में मिलकर पुनः समुद्र हो जाता

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