________________ अष्टम अध्याय 363 अव्यक्ताव्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे / राज्यागमे प्रलीयन्ते तत्रवाव्यक्तसंज्ञके // 18 // अन्वयः। सर्वाः व्यक्तयः ( चराचराणि भूतानि) अहरागमे अब्यक्तात् प्रभवन्ति, रात्र्यागमे ( पुनः) तत्र अव्यक्तसंज्ञके ( कारणरूपे ) एव प्रलीयन्ते // 18 // अनुवाद। समुदय व्यक्त (चराचर प्राणी) दिनमान का आगमन करके अव्यक्तसे उत्पन्न होता है, और रात्रिके आगमनसे उसी अव्यक्त संज्ञक कारणरूपमेंही प्रलीन होता है // 18 // व्याख्या। “अव्यक्त” =प्रकृतिसे ही सर्व अर्थात् जगत्का जो कुछ है वह उत्पन्न होता है। साधक ! अब देखो, जब तुम अपने आवागमनके घोरमें पड़कर विषयोंका दासत्व करते थे, तब यह विषयादि तुम्हींको भोग करता था। तब तुम विषयके भोक्ता न होकर भोग्य बने रहे थे। परन्तु सद्गुरुकी कृपासे जब तुमने आज्ञाचक्रको भेद किया, तत्क्षणात् तुम्हारा अहः आया। रात्रि जाती है दिन आता है इस प्रकार के समयको अहः कहते हैं। सूर्य्यदेव उठने ही चाहते हैं उठने में देर नहीं, ऐसे समयको। इस समय शरीरका रोवा रोवां पर्यन्त स्पष्ट देखा जाता है। आज्ञाचक्र भेद करनेके पश्चात् विवस्वान्के बहुत निकट होकर प्रकृतिके रूप यौवन वशीकरण सब एक एक करके प्रत्यक्ष करते हो, जिस करके, अव्यक्त प्रकृतिसे ही यह सब जो निकलती हुई बाहर चली बातो है स्पष्टतया समझ लेते हो, बढ़ भी होते हो कि प्रकृतिके फांसमें और पग न दोगे। क्यों ! प्रत्यक्ष करते हो कि नहों ?-यह तुम्हारी क्रियाको परावस्थाकी पूर्वावस्था है, यह तो हुआ मुक्तिका रास्ता। और जब तुमने प्रथम जीव होनेके लिये कमर कसे, अर्थात् संसार-लीलामें मतवाले होनेके लिये निम्नगति ली थी, अपना वही दिन एक बार स्मरण करो। (4aa . श२ श्लोक देखो)। जब तुमने विवस्वान् को पीछे करके चित्तके निम्न