Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 365
________________ ३२६ श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आत्तॊ जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे भरतर्षभ अर्जुन । प्रातः ( रोगाद्यभिभूतः ) जिज्ञासु (मात्मज्ञानेच्छु ) अर्थार्थी ( विभूतिकामः ) ज्ञानी ज (आत्मवित् च ) इति चतुर्विधाः (चतुः प्रकाराः ) सुकृतिनः ( सुकर्मकारिणः ) जना: मां भजन्ते ।। १६ ॥ अनुवाद। हे भरतर्षभ अर्जुन,! आत्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी, इन चार प्रकारके सुकृतिशाली लोग मुझको भजते रहते हैं ।। १६ ।। व्याख्या। सुकृतिशाली लोग ही परमात्म-सेवा करते हैं। पुनः यह सब भी सुकृतिके तारतम्य अनुसार चार प्रकारके हैं। वही चार प्रकार यथा,--(१) "आत्त"। जो रोग, शोक, भय, अथवा जन्म मरण रूप संसार-बन्धनमें कातर, वहा भक्त आत्त हैं। यह पुरुष केवल इन सब सांसारिक ज्वाला यन्त्रणासे निष्कृति पानेके लिये ही भगवत सेवामें प्रवृत्त होते हैं। (२) "जिज्ञासु'। जो तत्त्वबोध लाभ की इच्छा करते हैं, अर्थात् जड़ क्या है ? चैतन्य क्या है ? सृष्टिका कारण क्या है ? कैसे सृष्टि होती है ? ज्ञान क्या? विज्ञान क्या है ? मैं कौन हूँ ? मेरा कल्याण क्या ? चरम गति क्या है ? इत्यादि वर्क (भेदाभेद ) जाननेके लिये भगवतसेवामें प्रवृत्त होते हैं, वह पुरुष जिज्ञासु हैं। यह प्रथमसे श्रेष्ठ है; क्योंकि यह पुरुष कातर नहीं है। (३) "अर्थार्थी'। जिससे इच्छा साधन किया जाता है, यही अर्थ; इसलिये 'अर्थ' अर्थमें शक्ति वा विभूति। विभूति भगवत्सस्ता है। इस विभूति प्राप्तिके लिये जो साधक भगवत्सेवामें प्रवृत्त होते हैं, वहीं अर्थार्थी हैं। अर्थार्थी जिज्ञासुसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि, अर्थ वा विभूतिको भगवतसत्त्वा जानकर उसको अपने आयत्तमें लाने चाहते हैं। (४) "ज्ञानी'। जो आत्मा क्या है ? उसे जान चुके, विशेष जाननेके लिये जिनको कुछ भी बाकी नहीं, जो आत्मानन्दमें

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