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श्रीमद्भगवद्गीता
जीव-चक्षुसे छिपाय रक्खा है। लोग इस इच्छा शक्ति के वशसे ही
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यह करूंगा, वह करूंगा, यह मेरा है, वह मेरा है; इत्याकार वासना -- विलास से मुग्ध - मोहित - ज्ञानहारा होता है; इसीलिये आवरण भेद करके अज और अव्यय परमास्माका स्वरूप जान नहीं सकते । परन्तु जो साधक भक्तिबलसे योगमायाका आवरण भेद कर सकते हैं, अर्थात् संसार-वासना त्याग कर सकते हैं; उनके आंख के पिनेवाला परदा खुल जाती है, साधकको भी सब देखने में आता है और परमेश्वर भी उसके पास प्रकाश होता है । इसीलिये भगवान् ने कहा है कि - " मैं सबके पास प्रकाशित नहीं हूँ" अर्थात् भगवान्, भक्त और ज्ञानीकेपास सदा प्रकाशमान है, अभक्त और अज्ञानी के पास ही अप्रकाश है ॥ २५ ॥
वेदाहं समतीतानि वर्त्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मान्तु वेद न कश्चन ॥ २६ ॥
अन्वयः । हे अर्जुन ! अहं समतीतानि (विनष्टानि ), वत्तमानानि च भविष्याणि च (भावीनि च ) भूतानि (त्रिकालवर्तीनि स्थावरजङ्गमानि सर्वाणि ) वेद ( जानाभि ), तु किन्तु ) मां कश्चन ( कोऽपि ) न वेद ( वेत्ति ) ।। २६ ।।
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अनुवाद । हे अर्जुन ! भूत, भविष्यत् वत्तीमान तीनों कालके भूत समूहको मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको ( वह लोग ) कोई नहीं जानता ॥ २६ ॥
व्याख्या । “मैं” अर्थात् परमात्मा वा परमेश्वर नित्य-शुद्ध-बुद्धमुक्त स्वभाव सम्पन्न है । वह वाणि-विलास में मायाभुक्त होनेसे भी सदा ही मायातीत है; क्योंकि, परमेश्वर मायाके आवरण से मूढ़ताको प्राप्त नहीं होते। वह परिणाम- शून्य और निरहंकार है; इस कारण से, जगत् में भूत-भविष्यत् - वर्त्तमान काल भेद रहने पर भी, उसके पास सबही वर्त्तमान है; - वह सर्वज्ञ है । जीवगण अहंकार - युक्त होनेसे अल्पज्ञ है; इसलिये उसको जान नहीं सकते। जैसे आकाशमें मेघका