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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। "भगवान्”—“ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षष्णां भग इतीङ्गना'... जिसमें इन छःओंके एकाधारमें समावेश है, वही भगवान है। यह जो सात प्रश्न उठा है, इसका मीमांसा उस श्रीमुख बिना और किसी मुखसे बाहर नहीं हो सकता; इसलिये मुक्तात्मा निजबोधक रूप भगवान् साधकका प्रश्न मीमांसा कर देता है;-अर्थात् साधक कूटस्थ श्रीबिन्दु में चित्तसंयम करके स्वयं अपने मनही मनमें अपने प्रश्न का उत्तर करता है
(१) "अक्षरं परमं ब्रह्म"--जिसमें परिणाम नहीं, अदल बदल नहीं, चिरनित्यत्व विद्यमान है; वही 'ब्रह्म” है। _ "अक्षर”-जिसमें परिणमनता नहीं-"कूटोस्थोऽक्षर उच्यते”— कूटमें पड़ करके जो एक होकरके भी नाना आकार धारण करता है। कूटका अर्थ और विवरण ४र्थ अः ५म श्लोकमें देखी। कूट अर्थमें सोनारके निहाईको भी समझाता है, जिसके ऊपर फेंककर सोना कूटा ( पिटा ) जाता है। उस कूट के ऊपर पड़ करके जैसे एक सोना नाना प्रकारका रूप धारण करता है, नाना नाम पाता है, फिर गलाय देनेसे नाम और रूप उड़ जाकर वह जैसेका तैसाही रहता है, उसी प्रकार एक चैतन्यधन “कूट में" (प्रकृति-पटमें ) प्रतिबिम्बित होकरके नाना रूप धारण करता है, प्रातःकाल यवों के बालियोंपर ओसकगमें सूर्य-किरण पड़ करके जैसे नाना रंग दिखाई पड़ता है, परन्तु ओसकण एक ही एक रहता है और वह जैसे सूर्यगतिकी महिमासे होता है, तैसे प्रकृतिको कार्यकारिणी शक्तिसे एकही "चैतन्य" विश्वसाजको सज लिये हैं; इसीको 'कूटस्थ' कहते हैं। जैसे बाहरका सोनार बाहरके कूटपर सोना कूटता है; भीतरमें भी वैसा एक स्थान है (जिसको कूट कहते हैं ), जहाँ एक दृष्टिमें देख रहा हूं, आंखका पलक नहीं गिरता, तथापि देखता हूँ, एकही पदार्थ एकही जगहसे