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श्रीमद्भगवद्गीता पुण्योगन्धः पृथिव्याञ्च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ ६ ॥ अन्वयः। पृथिव्यां च पुण्योगन्धः (गन्धतन्मात्रं पृथिव्याश्रय-भूतोऽहमित्यर्थः), विभावसौ ( अग्नौ ) तेजः च अस्मि; सर्वभूतेषु जीवनं (प्राणधारणमायुरहमित्यर्थः), तपस्विषु तयः च अस्मि ॥ ९॥
अनुवाद। मैं पृथिवोका पुण्यगन्ध, अग्निका तेज, सर्वभूतोंका जीवन, तपस्वियों का तप हूँ ।। ९॥
व्याख्या। भगवान्के अहंत्व वा चित्शक्ति-(६) मूलाधारमें गन्धतन्मात्रा रूपसे पृथिवीके धाता। पुण्यगन्ध ही है गन्धतन्मात्रा, यह अविकृता है। विकृत होनेके ही पञ्चीकरण प्रारम्भ होता है; तब और पुण्यत्व अर्थात् तन्मात्रावस्था नहीं रहता। इसलिये पुण्यशब्दका प्रयोग हुआ है।
(७) मणिपुरमें तेज वा दीप्तिरूपसे विभावसु अर्थात् अग्निकी धाता।
(८) अनाहतमें जीवन अर्थात् प्राणवायु रूपसे सर्वभूतोंके धाता। . (६) और भरतक-प्रन्थिसे श्राज्ञा पर्यन्त स्थानमें तपरूप करके तपस्वियोंके धाता हैं । ६॥
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिबुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ १० ।। अन्वयः। हे पार्थ ! मां सर्वभूतानां सनातनं बीजं विद्धि। अहं बुद्धिमतां बुद्धिः, तेजस्विनां तेजः अस्मि ।। १० ।।
अनुवाद। हे पार्थ ! सर्वभूतों का सनातन बोज कह करके मुझको जानना, बुद्धिमानोंको बुद्धि और तेजस्वियोंका तेज भी मैं हूँ ॥१०॥
व्याख्या। (१०) भगवत्-अहत्व कामपुर चक्रमें अनादि कालसे ही बीज स्वरूप करके वर्तमान रहनेसे, भगवान् ही सर्वभूतोंके सनातन कारण, अर्थात् उत्पत्तिके विधाता।