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चतुथ अध्याय
२०५ अनुवाद। कर्म समझना होवेगा, विकम्म भी समझना होवेगा तथा प्रकम्म भी समझना होवेगा, क्योंकि कर्मकी गति गहना ( अतीव दुर्जेया ) है ॥ १७ ॥
ब्याख्या। कर्म ही जगत , कर्म ही संसार है। कर्मकी गति गहना है। जो परमेश्वरी, माहेश्वरी शक्ति * वा माया है वही गहना है। वही दुज्ञेया दुरत्यया माया ही कमकी गति अर्थात् आश्रय वा परिणाम है, जिसलिये माया ही कर्मरूपिणी जगद्धात्री है। माया जैसे एक ही पदार्थमें अनन्त भाव विकाश करके जीवको वही सब भाव करके नवीन ज्ञानमें मोहित करती है, कर्म भी वैसे अनुष्ठित होनेसे विविध आकारसे विविध फल प्रसव करता है। गुरुब्रह्म श्रीभगवानने उसी विशाल कर्मके स्वरूप ज्ञानको समझा देनेके लिये, गति भेदसे कर्मको तीन अंशमें विभाग किये हैं,-(१) कर्म, (२) विकर्म, और (३) अकर्म।
(१) कर्म। “भूतभावोद्भवकरः विसर्गः कर्मसंज्ञितः।” –'भूत' अर्थमें जीव, 'भाव' अर्थ में अवस्था; अतएव 'भूतभाव' अर्थमें चैतन्यका जीवावस्था वा जीव भाव है। और 'उत्' अर्थं करके ऊर्द्ध में अर्थात् पंचतत्वके ऊपर वा आज्ञाचक्रमें, तथा 'भव' अर्थमें स्थितिः इसलिये . ऊर्द्ध में स्थिति का नाम 'उद्भव' हुआ। 'विसर्ग' अर्थमें त्याग, निश्वास त्याग वा प्राणत्याग। जो विसर्ग जीव भावके उद्भवकारी, अर्थात् जिस प्रकारसे निश्वास त्याग करनेसे जीवभावका उद्भव हो, और जीवभावको शिवभावमें स्थापन करे, उसीका नाम कम है; अर्थात् जिस प्रकार प्राणचालनसे जीवात्मा परमात्मामें मिलते हैं, उसीको ही कर्म कहते हैं।
(२) विकर्म। वि= विपरीत+कम। जिस कम के लिये जीव को संसारमें आना अर्थात् शरीर धारण करना और विषयमें उतरना * "या सा माहेश्वरी शक्तिज्ञानरूपातिलालसा। व्योमसंज्ञा पराकाष्ठा सैषा हैमवती सतो" ॥ १७ ॥