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चतुर्थ अध्याय
२२७ भाता है * ( काल प्रभाव ऐसा ही होता है ) कि, और कोई प्रायास रहता नहीं,-चेष्टा नहीं करनी पड़ती, मन आपही आप ज्ञानके खिंचाईमें पड़ता है, उसका संकल्प बीज भी नष्ट हो जाता है, और पूर्ण ज्ञानका उदय होता है ॥ ३८॥
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परी शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३६॥ अन्वयः। श्रद्धावान् ( भक्तिपूर्वककर्मानुष्टानकारी ) तत्परः ( तत्पदे मतिमान् ) संयतेन्द्रियः ज्ञानं लभते ; ज्ञानं लब्ध्वा अचिरेण परी शान्ति अधिगच्छति (प्राप्तोति) ॥ ३९ ॥
अनुवाद। जो साधक श्रद्धावान् तत्पर और संयतेन्द्रिय, है वह ज्ञान लाभ करते हैं ; ज्ञान लाभ करके शीघ्र परम शान्तिको प्राप्त होते हैं ॥ ३९॥
व्याख्या। साधकको ३४ श्लोकके प्रकरणके अनुसार प्रणिपात परिप्रश्न और सेवा द्वारा ज्ञानको जानना पड़ता है। उन तीन प्रकरणके परिपाकमें ( संसिद्धिमें ) ज्ञानको जाननेके बाद, अन्नमय कोष अतिक्रम करके सहस्रारकी क्रिया द्वारा सहस्रारमें उठके बैठनेसे, उन तीन प्रकरणके प्रत्येकका अनुरूप तीन प्रकारकी मनोमय अवस्था आती है, यथा-(१) श्रद्धावान् , (२) तत्पर, (३) संयतेन्द्रिय ।
श्रद्धा-श्रत्-विश्वास (विगत श्वास ) + धा धारण करना; श्वासका क्रियासे मनको उठा लाकर भीतर धारण करनेका नाम
* मन जब तक पञ्चतत्त्वोंके भीतरमें रहता है तबतक काल प्रतिवादी, ज्ञानको ढांक देते हैं नहीं तो देनेकी चेष्टा करते हैं; तब वह काल महत् है। मन जैसे पञ्चतत्त्वोंके उपर उठा, तब काल और प्रतिवादी नहीं, तब काल सूक्ष्म है तब और साधने नहीं पड़ता, काल आपही आप ज्ञानको प्रकाश कर देते हैं। यह दोनों अवस्थाको लक्ष्य करके ही "समयका चक्कर" और "समय का गुण" यह दोनों बातें प्रथम प्रचलित हुई थी ।। ३८॥