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पंचम अध्याय
२३५ में भी वही जल है,-धारा एक है दो नहीं; युक्तवेणीमें स्नान-पानमें जो फल, मुक्त-वेणीमें भी वही है, इसलिये जो हो एकको ही सम्यक् आश्रय करते हैं, अर्थात् मनः प्राण समर्पणसे अन्तर्बहिः ( भीतरबाहर ) शुचि करते हैं। यह योगमार्ग भी वही है। प्राणमें मन देकर सम्यक् प्रकारसे "ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, मामनुस्मरन्" करते करते तन्मय हो जानेसे भी जो फल है, कूटस्थ पार होकर सहस्रारमें उठके मनमें मन देके नादके साथ मिलके लय हो जानेसे भी वही फल है। दोनोंमें ही मोक्ष हैं। जिस तरहसे ही हो चित्तलय होना ही मोक्ष है, सो कम्मसे ही होय, वा सांख्यसे ही हो। इसलिये कहा हुआ है कि "एकमप्यास्थितः सम्यक" इत्यादि ॥४॥
यत् सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद् योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यच योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥५॥ अन्वयः। सांख्यैः ( ज्ञाननिष्ठः संन्यासिभिः ) यत् स्थानं ( मोक्षाख्यं ) प्राप्यते ; योगः अपि ( कर्मयोगिभिरपि परमार्थज्ञानसंन्यासप्राप्तिद्वारारेण ) तत् (स्थानं) गम्यते। (अतः) यः सांख्यं च योगं च एकं पश्यति सः पश्यति (स एव सम्यकदर्शी) ॥ ५॥ ____ अनुवाद । ज्ञाननिष्ठ संन्यासी लोग जो स्थान लाभ करते हैं, कर्मयोगीगण भी सोई स्थान लाभ करते हैं ; अतएव सांख्य और योगको जो पुरुष एक देखे हैं, वह पुरुषही यथार्थदर्शी ।। ५॥
व्याख्या। षट्चक्रका क्रिया-योग, और सहस्रार का क्रियासांख्य है। इन दोनोंकी हो परिसमाप्ति एक है। (पूर्व श्लोक देखो)। मूलाधारसे सहस्रारके ब्रह्मरन्ध्र पय्यन्त सुषुम्नान्तर्गत एक ब्रह्मनाड़ी हौ विस्तृत है। इस ब्रह्मनाड़ीमें सम्यक् प्रकार करके प्रवेश करनेसे और चक्रभेद रहता नहीं, क्रियपद निष्क्रियपद भेद रहता नहीं, सब एक होय जाता है। जो इस एक भावको देखे हैं (प्रत्यक्ष