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पंचम अध्याय
२३३ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं। संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष देने वाले हैं, तथापि इनके भीतर कर्मसंन्याससे कर्मयोग श्रेष्ठ है ॥२॥
व्याख्या। ४ र्थ अः ४१ श्लोकमें ज्ञान और कर्म-संन्यासको जो श्रेष्ठ कहा गया था पुनश्च इस श्लोकमें कर्मयोगको जो श्रेष्ठ कहा जाता है, अधिकारी भेद प्रदर्शन करना ही इसका कारण है। कर्म
और संन्यास, साधन-सोपानके दो प्रान्त हैं; कम्मे नीचेके, संन्यास उपर वाले के। जो साधक नीचे हैं, उनको उठना हो तो प्रथम कर्म को आश्रय करना ही होवेगा, तब संन्यासको पावेंगे; कर्म बिना संन्यास पाया नहीं जाता; इसलिये उनके पक्षमें ( लिये ) कर्म ही श्रेष्ठ है। फिर जो पुरुष ऊपर उठ गये-सन्यास ले चुके, उनको कर्ममें प्रयोजन न रहनेसे, उनके पास सन्यास ही श्रेष्ठ है। मुख्य बात यह है कि, कर्म अवलम्बित होनेसे ही सन्यास और सन्यास होनेसे ही मोक्ष होती है; इसलिये कहा हुआ है कि, दोनों ही निःश्रेयसकर अर्थात् मोक्षप्रद हैं ॥२॥
ज्ञवः स नित्यसंन्यासी यो न द्वष्टि न कांक्षति ।
निद्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते ॥ ३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो। सः नित्यसंन्यासी शेषः, या न द्वष्टि न काँक्षति ; हि ( यतः) निर्द्वन्द्वः ( रागद्वेषादिद्वन्द्ववजितः) (अनायासेन ) बन्धात् ( संसारात् ) प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद। हे महाबाहो। जो पुरुष द्वष नहीं करते, आकांक्षा भी नहीं करते उनको नित्यसंन्यासी कहके जानना, क्योंकि, निद्वन्द्व पुरुष ही अनायास करके संसार . बन्धनसे मुक्ति लाम करते हैं ॥३॥
व्याख्या। क्रियामें सिद्धि प्राप्तिकी इच्छा-आकांक्षा और प्राकृतिक भाव त्याग करनेकी इच्छा-द्वेष है। जो मनुष्य द्वष और आकांक्षासे वर्जित होकर केवल मात्र गुरुवाक्यके अनुसार क्रिया करते