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षष्ठ अध्याय
२६१ संन्यासं ) प्राहुः (श्रुतिस्मृतिविदः इति भावः ) तं योग विधि (जानीहि ), हि (यतः) असंन्यस्तसंकल्पः कश्चन ( कश्चिदपि ) योगी ( समाधानवान् ) न भवति ॥२॥
- अनुवाद। हे पाण्डव । श्रुतिस्मृतिमें जिसको संन्यास कहा है, उसीको ही योग कह करके जानना; क्योंकि सङ्कल्प परित्याग न करनेसे कोई कभी योगी हो नहीं सकता ॥२॥
व्याख्या। योग किसको कहते हैं ? - योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" --"योगश्चित्तसमाधान' अर्थात् चित्तवृत्ति की निरोध वा चित्तकी समाधान अवस्थाको योग कहते हैं। विषय और इन्द्रियोंके संयोग करके चित्तमें जितना प्रकार भावका उदय होता है, उसका प्रत्येकको एक एक वृत्ति कहते हैं। वह समस्त ही चित्तके क्षिप्तमूढ़ विक्षिप्तादि अवस्था या विषम अवस्था है। विषय और इन्द्रियों के संयोग छिन्न हो जानेसे चित्तमें और किसी प्रकार वृत्तिकी उदय नहीं होती, समता आती है; उसी अवस्थाको ही चित्तवृत्ति की निरोध वा चित्त की समाधान कहते हैं। चित्तकी समाधान करना होय तो, अभ्यास योग द्वारा पहले संकल्प त्याग करना पड़ता है, उस प्रकार संकल्प त्यागसे ही विकल्प भी आप ही श्राप त्याग होता है; नहीं तो नहीं होता; इसलिये संन्यास अर्थात् सर्वनाश वा त्याग न होनेसे योग भी नहीं होता। ५ म अः में भी कहा हुआ कि, योग बिना संन्यास नहीं होता। अतएव योग और संन्यास परस्पर सापेक्ष है, एकको छोड़के दूसरा होता ही नहीं। श्रुति-स्मृतिकी मतामें भी सर्व कर्म तथा कर्मफल त्याग करनेकी नाम संन्यास है। सो होनेसे ही परमार्थतः योग और संन्यास पदार्थ एक ही है ॥२॥
आरुरुक्षोमुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥३॥ अन्वयः। योणं आरुरुक्षोः (आरोढुमिच्छतः ) मुनेः ( कर्मफल-संन्यासिनः )