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श्रीमद्भगवद्गीता मनके चंचलता हेतु योगभ्रष्ट होते है, योगसंसिद्धि ( कंवल्य ) न पाके वह किस प्रकार प्रति पावेगे? ॥ ३७॥ ..
व्याख्या। योगानुष्ठान करनेसे सब साधक ही जो सिद्धिलाभ करेंगे, वह नहीं, बहुतोंको असिद्धावस्थामें ही शरीर त्याग करना पड़ता है। यह प्रसिद्ध योगी भी फिर दो प्रकारके हैं। एक, जो पहले अच्छी तरह श्रद्धा युक्त हो करके योगानुष्ठान प्रारम्भ करते हैं पश्चात् शिथिल-वैराग्य हो करके और यथा नियम क्रियानुष्ठानमें यतन नहीं करते, परन्तु आस्तिक्य बुद्धियुक्त रहते हैं। यह साधक "श्रद्धयोपेतः अयतिः'। दूसरा, जो साधक श्रद्धा सहकार बरोबर ठीक ठीक चले गये हैं, किन्तु मृत्युकालमें दैव दुर्विपाक करके लक्ष्य स्थिर रखने न पाके चंचल हो गये, भन आत्मतत्त्वसे च्युत होनेके लिये भ्रष्ट हुये; यह साधक "योगाच्चलितमानसः" है। अब यह दो प्रकार अवस्थापन्न साधककी गति कैसी होवेगी? दोनों प्रकारमें ही तो यह दोनों योगमें संसिद्ध न होनेसे मुक्ति वा अपुनरावृत्ति गति न पावेंगे। तब किस प्रकार गतिको पावेंगे ? ॥ ३७॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति । अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढ़ो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥
अन्वयः। हे महाबाहो ! (सः ) ब्रह्मणः पथि (ब्रह्मप्राप्तिमार्गे ) अप्रतिष्ठः ( स्थिति अप्राप्य, निराश्रयः सन् ) विमूढः ( इतिकर्तव्यताज्ञानशून्यः) तथा उभयविभ्रष्टः (योगात् कम्मच्चि विच्युतो भूत्वा ) छिन्नाभ्र इव ( छिन्नमेघवत् ) न नश्यति कच्चित् ? ॥ ३८ ॥
अनुवाद। हे महाबाहो। वो भ्रष्ट साधक ब्रह्ममार्ग में प्रतिष्ठा लाभ करनेमें असमर्थ होके विमूढ़ होनेसे, योग और कर्म दोनोंसे ही विभ्रष्ट हो करके छिन्न मेघ सरिसे क्या नष्ट न होवेगे?॥ ३०॥