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षष्ठ अध्याय
२६१ समदर्शी और अभेदज्ञान सम्पन्न होनेसे योगी परमात्मा वा परमेश्वरके साथ मिलकर नित्ययुक्त होते हैं, दोनों ही परस्परके
आकर्षणमें आबद्ध रहते हैं; इसलिये योगीका निर्मल सूक्ष्म दृष्टि सतत प्रकाश रहती है, और वहां दृष्टि किसी आवरणसे ढका न पड़ने से, उनके चक्षुमें सर्वत्र ही परमेश्वर विराज करते हैं; वैसे उनके ज्ञान भक्तिमें मुग्ध होकर परमेश्वर भी उनके प्रति अपना अनुग्रह-प्रवाह सतत खुलासा रखते हैं, निमेषमात्रके लिये भी उनको अनुग्रहसे वञ्चित नहीं करते। असल बात, दोनोंमें जैसे एकात्मक होते हैं। (यह विशिष्टाद्वैतवाद है ) ॥३०॥
सर्पभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥३१॥ अन्वयः। यह सर्वभूतस्थितं मा एकत्वं आस्थितः ( अभेदमाश्रितः सन् ) भजति, सः योगी सर्वथा (सर्वप्रकारः ) बर्तमानः अपि मयि ( वैष्णवे परमे पदे) वतते ॥ ३१॥
अनुवाद। जो मुझको सर्वभूतस्थित एकत्वमें ( अभेद भावसे ) आश्रय करके भजना करते हैं, वह योगी सर्व प्रकारमें वर्तमान रह करके भी हमहीमें वर्तमान रहते हैं ॥ ३१॥
व्याख्या। सुषुम्नाके अन्तर्गत ब्रह्मनाड़ीका अवलम्बन करके क्रिया विशेष द्वारा जो साधक तन्मय हुये हैं, दृष्टि ब्रह्ममयो कर चुके हैं, उनके पास सबही एक है; वह योगी आत्माको सर्वभूतमें ही अभेद भावसे ग्रहण करते हैं; इसलिये उनके पास विषय और ब्रह्मके भेद न रहनेसे, वह योगी जहाँ जब जिस अवस्थामें रहते हैं, साधारण जीव सदृश सर्वतोभावमें विषय भोग करनेसे भी, वह योगी है अर्थात् योगावस्थासम्पन्न है, इसलिये “मैं” में अर्थात् आत्मपदमें-- परमपद विष्णुपदमें अवस्थित है, वह नित्य मुक्त है, कोई कुछ भी