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श्रीमद्भगवद्गीता परमात्मतत्वका साक्षात्कार लाभ भी होता है। संसारके भीतर प्रारब्धभोग कालमें भी, साधारण लोगोंके सदृश शीत, उष्ण, सुख, दुःख, मान, अपमान प्रभृतिके द्वारा विलित होके, उनको उस परमात्मतत्त्वसे विच्युत होना नहीं पड़ता है, उनको उस परमात्मसङ्ग भोग अविच्छेद करके होता ही रहता है ।। ७॥
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्ट्राश्म कांचनः॥८॥ अन्वयः। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः (अप्रकम्पः) विजितेन्द्रियः समलोष्ट्राश्मकांचनः योगो युक्तः ( योगारूढः समाहितः ) इति उच्यते ॥ ८ ॥
अनुवाद। जो साधक ज्ञान और विज्ञान करके तृप्तात्मा-कूटस्थ-विजितेन्द्रिय-मृत्खण्ड पत्थर और सुवर्णमें समान ज्ञान सम्पन्न, उसी योगीको ही युक्त ( योगारूढ़ ) कहते हैं ॥८॥
व्याख्या। (इस श्लोक और पाश्लोकमें योगारूढ़के लक्षण कहा हुआ है)। ___ ज्ञान और विज्ञानका थोड़ा थोड़ा ३य अः ४१ श्लोकमें व्याख्या किया हुआ है; किन्तु विशेष करके समझानेके लिये पुनः कहा जाता है। उपदेश और अनुष्ठान द्वारा प्रत्यक्ष अनुभूत जो कुछ बोध उत्पन्न होता है उसीका नाम ज्ञान है; इसका चरम है ब्रह्मज्ञान वा आत्मज्ञान अर्थात् सबही ब्रह्म-"मैं" ही ब्रह्म. इस प्रकार निश्चय ( अकम्पन स्थिति ) होना। इस आत्मज्ञानको ही ज्ञान कहते हैं । विज्ञान शब्द के दो अर्थ.है, "वि" उपसर्गके 'विशेष' और 'विगत' इन दो प्रकार अर्थभेद करके एक अर्थ है विशेष ज्ञान, दूसरा विगत ज्ञान है। २४ श तत्वके पृथक पृथक सत्वाके बोध, और उन सबके मिश्र तथा अमिम क्रिया कलाप सममाना और उन सबका अनुसन्धान करना-विशेष ज्ञान है और प्रिया द्वारा अन्तःकरण लय हो जा करके जब सब मिट