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श्रीमद्भगवद्गीता तैसे योगानुष्ठानमें जो जाग्रत अवस्था ( समाधि नहीं ) मिलती है, प्रथम प्रथम उसमें अधिक क्षण रहनेका चेष्टा करनेसे ( रहा तो जाता ही नहीं, अभ्यास दोष करके उससे भ्रष्ट होना ही पड़ता है; तथापि एकासनमें बैठके निरन्तर प्राण-क्रिया करके उसी अवस्था ठीक रखने की चेष्टा करनेसे ) शरीरका उपादान क्षय होता है, सुतरां शरीर भी रोगग्रस्त हो पड़ता है। इसलिये प्रथमतः नियम वांधाः यथा समय में योगानुष्ठान करना होता है; पश्चात् जैसे जैसे अभ्यास दृढ़तर होते रहे ( ऐकान्तिकी इच्छासे नियम पालन करनेसे अभ्यास शीघ्र ही दृढ़ होता है ), से वैसे क्रियाकी स्थिति काल आप ही श्राप बढ़ता जाता है, तब और किसी विघ्नका डर नहीं रहता। गुरूपदेश के ऊपर निर्भर करके अति सावधानीसे और अति यातनाके साथ इन सब उपाय अनुसार क्रियाके अनुष्ठान करनेसे समाधि-लाभ होता है, समस्त दुःखका भी क्षय होता है ॥ १६ ॥ १७ ॥
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते । निष्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥ अन्वयः। यदा चित्तं विनियतं ( विशेषेण संयतं एकाग्रतामापन्नं सत् ) प्रात्मनि एव अवतिष्ठते, तदा सर्वकामेभ्यः ( दृष्टादृष्टविषयेभ्यः ) निष्पृह [ योगी ] युक्तः इति उच्यते ॥ १८ ॥ ___ अनुवाद । जब चित्त विशेष भावसे नियत होकर आत्मामहो स्थिति लाभ करता है, तबही योगी सर्वकामसे स्पृहाशून्य होकर युक्तनामसे अभिहित होते हैं । १८ ॥
व्याख्या। १७वां श्लोकमें कहा हुआ है कि, नियमबद्ध होके कर्म करनेसे ही योग ( समाधि ) होता है। अब कर्मका अनुष्ठान करनेसे किस समय युक्त होना होता है, इस श्लोकमें वही कहा जाता है। जब चित्त एकाग्र होकर एकमात्र आत्मामें स्थिर हो जाता है, आत्मा बिना दूसरे किसीको धारणा (चिन्ता ) नहीं करता है, अपने