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षष्ठ अध्याय में आप रहता है, उसी समयको ही सर्वचिन्ता विवर्जित अवस्था कहा जाता है, अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, मरुत , व्योम वह जो सर्व हैं. इनके साथ सम्बन्ध रहित हो जानेसे इनके ऊपर और स्पृहा नहीं रहता; एकमात्र आत्मा ही अवलम्बन होते हैं। यही है युक्त अवस्था ॥ १८ ॥
यथा दीपो विवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १६ ॥ अन्वयः। यथा निवातस्थः ( वातवजितस्थाने स्थितः ) दोपः न इङ्गते ( न चलति ), आत्मनः योगं युञ्जतः ( समाधि अनुतिष्ठतः ) योगिनः यतचित्तस्य (संयतान्तःकरणस्य ) सः ( दीपः ) उपमा ( दृष्टान्तः ) स्मृता ।। १९ ।।
अनुवाद । वायु-विहीन स्थानमें जैसी दीप शिखाकी कम्पन नहीं होता, आत्मयोगनुष्ठानमें रत योगीके संयतचित्तकी तादृश उपमा स्थिर किया हुआ है ॥ १९॥
. व्याख्या। वायु-विहीन स्थानमें दीपशिखा क्रमशः वारीक ( सूक्ष्म ) हो आके सुचीकी अग्रभाग सदृश होता है; यह क्रम-सूक्ष्म शिखा अङ्कित हुआ तसवीर सदृश निश्चल है, तथा उसमें ऊर्द्ध-प्रवाह वर्तमान है। बत्तीसे लेके शिखाके अग्रभाग पर्य्यन्त ही प्रकाश है ठीक उसके बाद ऊपरसे ही अप्रकाश (निराकार ) है। चित्त संयत करनेके पश्चात्, ठीक उसी प्रकारसे समुदाय वृत्ति एकाग्र होकर एक अतीव सूक्ष्म विन्दुमें स्थिर-प्रवाह आकारसे प्रवेश करके मिट जाता है, अर्थात् वह सब वृति अपना अपना उत्थान पतन रूप साकारत्व परित्याग करके निराकारत्वमें ( साम्यत्वमें ) परिणत होता है ॥ १६ ॥
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । . . यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २० ॥ सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥२१॥