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पञ्चमोऽध्यायः
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अर्जुन उवाच । संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगच शंससि ।
यच्छ्रय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥ १॥ . अन्वयः। अजुनः उवाच । हे कृष्ण ! कर्मणां संन्यासं पुनः योगं च शंससि ( वदसि ) एतयोः ( मध्ये ) यत् श्रेयः (श्रेयस्करं ) मे ( मह्म) तत् एकं सुनिश्चितं व हि ॥१॥
अनुवाद। अर्जुन कहते हैं-हे कृष्ण ! कर्मसन्यास करनेका कथा कह करके फिर कर्म-योग करने की कथा कहते हो ; इन दोनोंके भीतर जो श्रेयस्कर हो मुमको निश्चय करके कहो ॥ १॥
व्याख्या। चतुर्थ अध्याय १८ श्लोकसे ४१ श्लोक पर्यन्त सर्व कर्म-संन्यासकी कथा कही हुई है, फिर ४२ वें श्लोकमें कर्मानुष्ठानलक्षण योगाश्रय करने की बात भी कही हुई है । परन्तु एकही समयमें इन दोनोंका अनुष्ठान होना असम्भव है। अब कौनसा अवलम्बन करना उचित है;-सबही ब्रह्म है, इस ज्ञानको धारणा करके कुछ भी न करके निष्का होना उचित है या कर्मका अनुष्ठान करना उचित है ? मनमें इस प्रकार भावना उदय होनेसे, कौन श्रेयस्कर है सोई जानने के लिये, साधक यह प्रश्न उठाया करते हैं ॥१॥
श्रीभगवानुवाच । संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कम्मयोगो विशिष्यते ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । संन्यासं ( कम्मणां परित्यागः ) कर्मयोगः च (कर्मणां अनुष्ठानं च) उभौ निःश्रेयसकरौ ( मोक्ष कुर्वाते ) तु ( तथापि ) तयोः ( मध्ये ) कर्मसंन्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते ( विशिष्टः भवति ) ॥२॥