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पंचम अध्याय अनुबाद। देहो विवेक बुद्धिद्वारा सर्वकर्म त्याग करके वशी होयके नवद्वारयुक्त पुरमें ( देह में ) कुछ न करके ओर कुछ न करायके सुख से अवस्थिति करते हैं ।। १३॥
व्याख्या। साधक बुद्धिक्षेत्रमें नैष्ठिकी शान्तिके अवस्था प्राप्त होनेके पश्चात् अतीव सूक्ष्म भावसे द्रष्टा होके (४र्थ अः २६ श्लोक देखो ) संयमी होते हैं। इस समय आत्म-बुद्धिके उदयसे सर्व-कर्मसंन्यास होता है, अर्थात् मनके संकल्प क्रियाका नाशके साथही साथ षट्चक्रमें प्राण-क्रिया भी त्याग हो जाता है, इसलिये दो आंख, दो नाक, दो कान, मुख, गुह्य, लिंग-देहके इस नवद्वारके क्रिया भी बन्द होयके बहिर्विषयसे सम्बन्ध एकवारगी मिट जाता है, तब साधक वशी होते हैं ( इसीको अहंक्षेत्रकी क्रिया कहते हैं )। इस समयमें संकल्प और निश्चय इन दोनों वृत्तिके मिट जानेसे, देहके भीतर रह करके भी, साधककी कोई क्रिया भी नहीं रहती, केवल सुखमें अर्थात सुन्दर आकाशमें प्रकाशमय ज्योतिके भीतर आत्मानन्दमें अवस्थिति होती है। (७म श्लोकके विजितात्मा अवस्था यही है)। वशीअवस्थामें क्रिया न रहनेसे भी, क्रिया-शक्ति और पूर्ण अहंत्व ज्ञान वा अहंज्ञान रहता है ॥ १३ ॥
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥ अन्वयः। प्रभुः (ईश्वरः सन् सः ) लोकस्य कत्त त्वं न सृजति ( उत्पादयति), कर्माणि न ( सृजति ), कर्मफलसंयोगं न ( सृजति ) ; स्वभावः तु ( प्रकृति एव ) प्रवत्तते ॥ १४ ॥
अनुवाद। प्रभु ( ईश्वर ) लोगोंके कत्त त्व सुजन नहीं करते, कर्म सृजन नही करते ; और कर्मफलके संयोग भी सृजन नहीं करते, स्वभावही प्रवत्तित होता है ॥ १४ ॥