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- पंचम अध्याय मन-बुद्धि संयत करते हैं तथा इच्छा-भय-क्रोध-विहीन और मोक्षपरायण होके मुनि हुये हैं, वह पुरुष सदा ही मुक्त हैं ॥ २७ ॥ २८ ॥
व्याख्या। भगवान बराबर कह आये हैं कि, कर्मयोगही मोक्ष का कारण है; इसलिये योग और संन्यास दोनोंका ही ब्रह्मनिर्वाण स्वरूप एक परिणाम देखाय करके, अब फिर कर्मयोगके अन्तर्गत ध्यानयोग विशेष करके कहते हैं।
विषयचिन्ता न करनेसे ही 'अन्तरसे विषयको बाहर करना' होता है; कारण कि चिन्ता करनेसे ही विषय अन्तरमें प्रवेश करता है। दोनों भ्र के अयेन बीचमें जहां तिलकका विन्दु लगाया जाता है, उसी स्थानमें-दृष्टि स्थिर रखने पड़ता है, उसीका नाम भ्रमध्यमें आंख चढ़ाना। सहज क्रिया में प्राणायाम करते करते जब निश्वास और प्रश्वास बारीकसे बारीक हो पाता है और उसकी वेग नासिका के भीतरमें ही बहती है, उस समयमें गुरूपदिष्ट उपायसे * प्राणापान को समान करना पड़ता है। प्राणापानका समान होनेसे ही 'यतेन्द्रिय मनोबुद्धि' प्रभृति अवस्था आपही आप आता है। (जो पुरुष क्रिया करेंगे, निजबोधसे वह सब अवस्था आपही आप समझेगे)। उन सब अवस्थासे जब मुनि हुआ जाता है अर्थात् तत्पदमें मन संलीन हो जाता है, तबही साधक सिद्धयोगी होते हैं। इस प्रकारसे सिद्ध होनेके पश्चात्, जाग्रत, सुषुप्ति, समाधि सकल अवस्थामें ही उनको ब्रह्म भावमें रहना होता है। इसी कारणसे वह साधक सदामुक्त हैं ॥२७ ।। २८ ॥
* अपान अर्थात् जो वायु बाहर जानेवाला गति लिया है, उसको पुरक करके आकर्षण करनेसे ही ( खिंचनेसे ही ) प्राणके स्थान संकीर्ण होनेसे, प्राण आपही आप अपानमें जाके पड़ता है और दोनों मिलकर समान होता है। इसीको ही अपानमें प्राणके हवन वा आहुति देना कहते हैं; से रेचकसे निश्वासके द्वारा प्राणमें अपानका हवन होता है। यह कार्य पुस्तक देखके करना नहीं; खुद अपने गुरु साजके भी करना नहीं चाहिये। (४ थे अः २९ वां श्लोकके व्याख्या देखो ) ॥ २७ ॥ २८॥