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चतुर्थ अध्याय नहीं, क्योंकि, कर्मक्षय न होनेसे खत्-असत् फल करके आबद्ध होना ही पड़ता है। वही बन्धन ही पाप है। ज्ञानका स्वरूप मालूम होनेसे, अन्तकरण-वृत्ति अशेष करके अन्तर्मुखी हो जानेसे, कर्मसमूहसंख्यामें जितनी अधिक हो, असंख्य होनेसे भी-आपही आप त्याग हो जाता है, अर्थात् ज्ञानविद् अज्ञानचक्रके ऊपर कर्मका अतीत स्थान में चित्त निवेश करके रहते हैं, इससे कर्म उनको स्पर्श कर नहीं सकता ॥३६॥
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥३७॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यथा समिद्धः ( प्रदीप्तः ) अग्निः एधासि (काष्ठानि ) भस्मसात् कुरुते तथा ज्ञानाग्निः सर्वकम्माणि भस्मसात् कुरुते ॥ ३ ॥ ___ अनुवाद। हे अर्जुन । प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार काष्ठ सकलको भस्मसात् करती है, ज्ञानाग्नि उसी प्रकार समुदाय कर्मको भस्मसात् करती है ।। ३७ ॥ -
व्याख्या। ज्ञानी सहस्रारमें उठकर बैठ रहनेसे, कर्मके अतीत होते हैं, कह करके, कर्म ज्ञानीको स्पर्श नहीं कर सकता; परन्तु फिर जब उतरके विषयके भीतर आते हैं, तब उनकी जिस प्रकार अवस्था होती है, वही इस श्लोकमें कही जाती है।
कर्म तीन प्रकारके हैं। प्रथम, प्रारब्ध कर्म,-जिसने फल देना आरम्भ किया है, अर्थात जिसका फल यह शरीर है। द्वितीय, सञ्चित कर्म,-जिसका फल सञ्चय होता है, फल देना आरम्भ नहीं हुआ, पश्चात् फल देवेगा। तृतीय, भावी कर्म-जो कर्म अब तक अनुष्ठित हुआ नहीं, भविष्यत्में होवेगा। अग्निके सहारेसे काष्ठका जल-वायु अंश जैसे उड़ जाता है, केवल पृथ्वी अंश भस्म रूपसे पड़ा रहता है, वह भी बहुत ही हलका और सूक्ष्म, ठीक वैसे