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श्रीमद्भगवद्गीता यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ।। अन्वयः। हे पाण्डव ! यत् ( ज्ञान ) ज्ञात्वा त्वं एवं ( एवम्प्रकारेण ) पुनः मोहं न यास्यसि, ( किञ्च ) येन ( ज्ञानेन ) भूतानि ( ब्रह्मादीनी स्तम्बपर्यन्तानि ) अशेषेण आत्मनि अथ आत्मानं भयि द्रक्ष्यसि ।। ३५ ॥
अनुवाद। हे पाण्डव ! जिस ज्ञानको जाननेसे फिर और इस प्रकारका मोह प्राप्त न होवोगे; ऐसा कि जिससे ब्रह्मादि स्तम्ब पर्यन्तं भूत समूहको अंशेषरूप करके आत्मामें, तत् पश्चात् मैं में देख सकोगे ॥ ३५ ॥
व्याख्या। उन तीन उपायोंसे ज्ञानको जाना = मालूम होनेके बाद प्रत्यक्ष देखने में आता है कि. सूत्र में जैसे मणि गण रहते हैं श्रात्मा में बसे भूतोंका अवस्थिति है, कुछ भी नहीं छुटा है। इस कारण करके "मैं और मेरा" रूप संसार-मोहमें (धोकेमें ) पड़ना नहीं होता। तब "भूतानि" (विश्वप्रपन्च, जगत में जो कुछ है) "आत्मा" (क्षरचैतन्य, साधक ), और "अहं" ( अक्षरब्रह्म) - यह समस्त ही स्वरूप-दृष्टिसे एक हो जाता है। अतएव तब जो कुछ लक्ष्य में आता है, सबमें ही “तत्त्वमसि' ज्ञानको उपलब्धि होती है ।। ३५ ॥
अपि चेदसि पापिभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सव्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥३६॥ अन्वयः। अपि चेत् ( यद्यपि ) सर्वेभ्यः पापिभ्यः पापकृत्तमा ( अतिशयेन पापकृत् ) असि, (तथापि ) ज्ञानप्लवेन (ज्ञानपोतेन ) एव सर्व वृजिनं ( पापसमुद्र) सन्तरिष्यसि ॥ ३६॥
अनुवाद। सकल पापियोंसे तुम अतिशय पापकारी भो हो, ऐसा होनेसे भी ज्ञानरूप पोत द्वारा पापरूप समुद्र श्रम विना पार उतर जा सकोगे ॥ ३६ ॥
व्याख्या। मुमुक्षत्रोंके लिये सत्कर्म करना भी पाप है; कारण यह है कि, चाहे सत् हो चाहे असत् हो, कर्म रहनेसे मुक्ति होती