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चतुर्थ अध्याय
२१६ ( शेष ) पराजित होता है, उसी क्षणमें जीवका देहत्याग होता है । जिस कौशल करके उस ऊर्द्धवायुको नीचे और अधोवायुको ऊर्द्ध में रखके दोनोंकी गतिरोधकी जाय, उसीको प्राणायाम * कहते हैं (गुरुमुखी विद्या)। वह प्राणायाम जिन लोगोंके प्रायत्त हुआ है, वही सब लोग प्राणायाम-परायण हैं। प्राणायाम द्वारा जब प्राण
और अपानकी गतिरोध हो जाता है, तब और निश्वास-प्रश्वास नहीं रहता, इसलिये आहार अर्थात् वायुभोजन "नियत" अर्थात् संयत वा रुद्ध होता है। इस अवस्थामें साधक लोग, कूटरूपा प्रकृतिके गर्भमें रह करके भी उनमें से कोई किसीके साथ संस्पर्शदोष नहीं लेते; उन सबके समस्त व्यापार ही तब स्थिर वायु द्वारा स्थिरवायुमें सम्पादित होता है, इसीलिये "प्राणान् प्राणेषु जुह्वति" कहा गया है। यह अवस्था भाषामें व्यक्त नहीं होता। इङ्गित (इसारा ) से भुक्तभोगी समझ लेवेंगे ॥ २६ ॥
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षयित कल्मषाः ।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सतातनम् ॥ ३०॥ अन्वयः। एते यज्ञविदः सर्वे अपि यज्ञक्षायतकल्मषाः (यज्ञानुष्ठानेन निष्पापा:) यज्ञशिष्टाभृतभुजः ( भूत्वा ) सनातनं ब्रह्म यान्ति ॥ ३० ॥
अनुवाद। ये समस्त यज्ञषिद्-लोग यज्ञानुष्ठानमें निष्पाप तथा यज्ञशेषरूप अमृत भोजी होके अनन्त ब्रह्मत्वको प्राप्त होते हैं ॥ ३०॥
व्याख्या। यज्ञक्रियाके जितने प्रकारकी प्रणाली कही हुई है, उन सबकीहो चरम वानी है । उन सबके भीतर प्रभेद केवल विभूति प्राप्ति वा शक्तिलाभ विषयमें है। यज्ञके यथाविधि अनुष्ठान करनेसे चित्तका * "रुद्ध'शक्तिनिपातेन अधोशक्त निकुञ्चनात् ।
मध्यशक्तिप्रबोधेन जायते परमं पदम्" ।। २९ ।।