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श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितिलाभ करके जो आत्मानन्दास्वाद् मिलता है, मन उसमें विभोर रहनेसे, लक्ष्य उसी तरफ ही रहता है, इसलिये तब भी तत्साधनोपयोगी प्राणकम होता ही रहता है। इस अवस्थामें साधक कम करनेसे भी उसी आत्मानन्दमें लक्ष्य रहनेसे उनको अकम भोग भी होता रहता है; फिर अकमसम्भूत आत्मानन्दमें लक्ष्य रहनेसे भी, कर्म करनेके लिये कमज्ञान भी रहता है। इस करके उनका एकाधारमें कम अकर्म दोनों ही होता रहता है। अतएव उनके कम में अकम्मका और अकम में कमका दर्शन होता है। इस प्रकार साधक ही बुद्धिमान है; कारण उनका बुद्धि विषय-विमुख होनेसे आत्मामें लगकर स्थिर होकर रहता है, विक्षिप्त (खरचा नहीं होता। इस वास्ते वह युक्त है। और भी वह कृत्स्नकम्मकृत् है, अर्थात् विकम-विक्षेप विहीन सम्पूर्ण कर्म के अनुष्ठान करके “मैं” और "मेरे' मिल जाके, मिशके एक हो जानेके ठीक पूर्व पर्यन्त जो सूक्ष्मातिसूक्ष्मतम वृत्ति रहती है, उसमें, प्रवृत्ति-निवृत्ति भेदसे जितने प्रकार का कर्म है, उन सबका तत्त्व वह जानते हैं; इस करके वह सर्वज्ञ है। (जीवन्मुक्तावस्था यही है; इसके बादही शरीर त्यागसे विदेह ब्रह्मस्व है ) ॥ १८ ॥
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ १६ ॥
अन्वयः। यस्य सर्वे समारम्भाः (कर्माणि) कामसंकल्पवजिताः (कामैस्तत्कारगैश्च संकल्पैर्वजिताः) बुधाः (ब्रह्मविदः ) ज्ञानाग्निदग्धकाणं तं पण्डितं माहुः॥ १९॥
अनुवाद। जिनके कर्म सकल कामसंकल्पवजित हैं, ज्ञानाग्निमें उनके समुदाय फर्मके दग्ध हो जानेसे, बुधगण उनको पण्डित कहते है ।। १९ ।।