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द्वितीय अध्याय हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। ३७ ॥
अन्वयः। हे कौन्तेय ! हतो वा स्वर्ग प्राप्स्यसि, जित्वा वा महीं भोक्ष्यसे; तस्मात् युद्धाय कृतनिश्चयः ( सन् ) उत्तिष्ठ ।। ३७॥
अनुषाद। हे कौन्तेय ! यदि मरो तो स्वर्ग लाम करो,-यदि जयी होओ तो पृथिवी भोगकर सकोगे; अतएव युद्धके लिये कृतनिश्चय हो करके उठ बंठो ॥ ३७ ॥
व्याख्या। यह साधन-समर करते करते मर जानेसे भी तुमको स्वर्ग (आत्मगति लाभ ) होवेगी; क्योंकि सत् कर्म करते करते शरीर त्याग होनेसे, मृत्यु सन्धिमें अभ्यासके बल करके मनमें सत् वस्तु ही उदय होबेगा; जिसमें सद्गति प्राप्ति अवश्यम्भावी है (६ ष्ठ अः ४०-४६ श्लोक देखो। और यदि जय लाभ कर सकोगे तो “महीं भोक्ष्यसे” अर्थात् असपत्न ऋद्ध राज्य भोगते रहोगे (८ म श्लोक देखो ) अर्थात् जीवन्मुक्त हो जाओगे। अतएव युद्धके लिये कृतनिश्चय होकरके ऊर्द्ध में स्थित हो जाओ ( उत्-तिष्ठ) (३ य श्लोक देखो ) ॥ ३७॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥
अन्वयः। सुखदुःखे समे ( तुल्ये ) कृत्वा, तथा लाभालाभौ जयाजयौ ( समौ कृत्वा ) ततः युद्धाय युज्यस्व ( सन्नद्वोभव ) एवं ( युद्ध कुर्वन् ) पापं न अवाप्स्यसि ॥ ३८॥
अनुवाद। सुख-दुःख, लाभ-अलाभ तथा जय-पराजय समान ज्ञान करके युद्ध में युक ( प्रस्तुत) हो जावो; इस प्रकारसे ( युद्ध करनेसे ) तुम पापको प्राप्त न होओगे ॥ ३८॥