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द्वितीय अध्याय व्याख्या। पूर्वके श्लोकके अनुसार अवस्थाको प्राप्त हो करके विचरण करनेसे जो अवस्था होती है, वही ब्रह्मज्ञानकी अवस्थाब्राहीस्थिति है। इस ब्राह्मीस्थितिमें सब कुछ ब्रह्मामय हो जानेसे,. बाहरके इन्द्रिय-व्यापार समुदय सम्पन्न होनेसे भी, भेदज्ञान के अभावसे भीतर बाहर एक हो जाता है, इसलिये मोहित होना नहीं पड़ता। इसलिये इस अवस्था में विषयके भीतर रह करके भी शरीर-त्याग होनेके समय ' यत्र यत्र मनो याति तत्रैव ब्रह्म लक्ष्यते" सबही ब्रह्ममय लक्ष्य होनेसे, अपुनरावृत्ति गति रूप ब्रह्मनिर्वाणप्राप्ति होती है ॥ ७२ ।।
"शोकपंकनिमप्र यः सांख्ययोगोपदेशत । उज्जहारार्जुनं भक्तं स कृष्णः शरणं मम ॥"
सदशत।
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे सांख्ययोगो नाम
'द्वितीयोऽध्यायः॥