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श्रीमद्भगवद्गीता सुखके लिये कामना परायण हो करके अन्न, जल, वायु आदि पेटके भीतर प्रवेरा (आहार ) कराते हैं, वह लोग पापाचारी हैं, उन सबके शरीरमें अघ (मनकी चंचलता ही) रहती है, स्थिरता नहीं "आती॥ १३॥
अम्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात् सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञ प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ अन्वयः। भूतानि अन्नद्भवन्ति, अन्नसम्भषः पर्जन्यात् ( भवति ) पजन्यः यज्ञात् भवति, वज्ञः कन्मसमुद्भवः, कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि, ब्रह्म अक्षर समुद्भवं ; तस्मात् सर्षगतं ब्रह्म यज्ञ नित्यं प्रतिष्ठितं ॥१४॥१५॥
अनुवाद। भूत समस्त अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नसम्भव ( अन्नको उत्पत्ति) पर्जन्य ( वृष्टि ) से होता है, यज्ञ से पर्जन्यको उत्पत्ति है, यज्ञ कर्मसे उत्पन्न, होता है, और ब्रह्मको अक्षरसे उत्पन्न जानना। इसलिये ब्रह्म सर्वगत तथा यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित है ।। १४ ॥ १५ ॥
व्याख्या। क्षरके ऊपर जो है, वही अक्षर अर्थात् कूटस्थअव्यक्त है, जिनमें तथा जिनसे विश्वप्रपंच व्यक्त है; इनका दर्शनस्थान अज्ञान चक्र * है इस अक्षरसे ही ब्रह्म उत्पन्न है, जिनको शब्दब्रह्म वा प्रणव कहते हैं अर्थात् आकाशतत्त्व वा व्योम; इनका स्थान विशुद्धचक्र है। शब्दब्रह्मसे ही कार्यब्रह्मकी (प्राण अर्थात् वायुतत्त्वकी) उत्पत्ति है, प्राण ही कर्म है, जिनको कर्मरूपा महामाया कहते हैं, जिनके अस्तित्त्यसेहो विश्व संसारमें कर्तृत्वका विकाश है ; इनका स्थान
* इस अज्ञान चक्र में ही-"एकस्थं सचराचरं कृत्स्नं जगत्" प्रत्यक्ष होता है ; इसलिये श्रीगुरुदेव यहां ही लक्ष्यस्थिर करनेकी आज्ञा करते हैं। इसीलिये अज्ञानचक्रको आज्ञाचक भी कहते हैं ॥ १४ ॥ १५ ॥