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चतुर्थ अध्याय अर्जुन-अ+रज्जु+न, अर्थात् जो बन्धन मुक्त नहीं है। संसार में कर्म ही एक मात्र बन्धन है। सोई कर्म फिर दो प्रकारका,सुकर्म और कुकर्म। आत्मा ही सु अर्थात् सुन्दर, और अनात्म पदार्थ ही-कु अर्थात् मन्द वा बुरा। महाभारतमें है. पृथिवीमें केवल सुकर्म किये थे, इसलिये अर्जुनका नाम अर्जुन हुआ था। 'तदर्थीय' कर्म ही साधकके सुकर्म है। वृत्ति आत्ममुखी होनेसे भी कम्मै जीव
और ईश्वरके बीचमें आवरण स्वरूप रहनेसे उस कर्मका शेष न होने पर्य्यन्त जीव अल्पज्ञ रहते हैं, सर्वज्ञ हो सकते नहीं। उस सुकर्म रूप आवरणशक्ति-विशिष्ट जीव ही अर्जुन है ।
परन्तप-पर अर्थात् प्रकृति जिनसे तापित होती है, वही परन्तप । साधकके मनमें पहले "आत्मा ही मैं, प्रकृति मैं नहीं” इस प्रकारका ज्ञान रहनेसे, द्वत भाव प्रबल रहता है। इसलिये प्रकृतित्व त्याग करने की इच्छा रहती है। उस त्यागेच्छा रूप विक्षेषशक्ति-सम्पन्न जीव ही परन्तप है * ॥५॥
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥ अन्धयः। अजः ( जन्मरहितः ) अपि सन् अव्ययात्मा ( अनश्वरस्वभावोऽपि सन् ), तथा भूतानां ईश्वरः अपि सन् ( अहं ) स्वां प्रकृति अठिष्ठाय ( स्वीकृत्य ) आत्ममायया ( स्वेच्छया ) सम्भवामि ॥ ६ ॥
अनुवाद । जन्म रहित मैं, अनश्वर-स्वभाव तथा सर्वभूतोंके ईश्वर हो करके भी अपने प्रकृतिको अधिकार करके आत्ममायासे सम्भूत होता रहता हूँ ॥ ६॥
व्याख्या। क्रियायोगसे साधक समाधि-साम्यद्वारा शुद्ध चैतन्यमें लीन होयके, पश्चात् विकर्मसे फिर मनोधर्मशील होनेके बाद,
* द्वितीय अध्याय ९म श्लोकमें "परन्तप" का व्याख्या देखो ॥५॥