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श्रीमद्भगवद्गीता को प्राप्ति होती है, इसलिये वह श्रेयः है, और यदि परधर्ममें रह करके मृत्यु हो तो, लक्ष्य भ्रष्ट हो करके संसार वाले अज्ञानान्धकार में जन्म मृत्युके प्रवाहमें पड़ करके चक्कर खाना पड़ता है, इसलिये उसे भयावह जानो ॥ ३५॥
अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वा य बलादिव नियोजितः ॥ ३६॥ अन्वयः। अर्जुन: उवाच । हे वार्ष्णेय ! अय पुरुषः ( देही ) अनिच्छन् अपि केन प्रयुक्तः ( सन् ) बलात् नियोजितः इव पापं चरति ? ॥ ३ ॥
अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे वार्ष्णेय ! इच्छा न करनेसे भी बल पूर्वक नियोजित जसे, यह पुरुष किसके द्वारा प्रयुक्त होके पापाचरण करते रहते हैं ॥३६।।
व्याख्या। क्रियावान साधक अच्छी तरह समझते हैं कि ३० तथा ३३ श्लोकके उपदेश अनुसार क्रिया करनेसे ही स्थिर भाव आता है, जगत्को भूल जाया जा सकता है, आत्मगतिकी प्राप्ति होती है, किन्तु क्रियाकालमें देखते हैं कि-क्रिया होती है, अच्छी तरह होती है, लक्ष्य कूटस्थमें अच्छा रहा है, उसे छोड़ करके दूसरी तरफ लक्ष्ये देनेमें जरासी भी इच्छा नहीं; इच्छा न रहनेसे भी क्या जाने किस अनजान शक्तिसे जबरदस्ती मनको दूसरी तरफ ले जाके लक्ष्यभ्रष्ट कराके नाना प्रकार चंचलतामें फेंकती है। इसलिये आत्म-जिज्ञासामें अनुसन्धान करते हैं कि, ऐसा क्यों होता है, इसका कारण क्या है ? (वार्ष्णेय शब्दके अर्थ १० म अः ३७ वा श्लोकमें देखो ) ॥ ३६ ।।
श्रीभगवानुवाच। काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्वयेनमिह वैरिणम् ॥ ३७॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । एषः रजोगुणसमुद्भवः महाशनः ( दुष्पूरः ) महापाष्मा ( अत्युग्रः ) कामः, एष क्रोधः ; एनं ( कामं ) इह ( अत्र योगमार्गे ) वैरिणं विद्धि ॥ ३७॥