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तृतीय अध्याय इस करके काम आपही आप नाश पाता है त्याग हो जाता है; इसीलिये इस श्लोकका उपदेश यह है कि, पहले इन्द्रिय सकल संयत करना * पड़ता है। ऐसा होनेसे ही कामको नाश वा त्याग किया जा सकता है। कामको नाश अथवा त्याग न करनेसे ज्ञान विज्ञानकी स्फूर्ति नाश होती है और विषय-चांचल्य रूप पापकी वृद्धि होती है । ___ ज्ञान-जजायमान, बगन्धानु अर्थात् विषय, श्रा=आसक्ति, नम्नास्ति; उत्पत्ति-स्थिति-नाशशील पार्थिव विषयमें आसक्ति न रहना ही ज्ञानका अक्षरगत अर्थ है। विज्ञान ( वि-विशेष )-विशेष ज्ञान । समष्टि चैतन्यका स्वरूप-बोध ज्ञान है व्यष्टि चैतन्यका स्वरूप-बोध विज्ञान । अर्थात् आत्मामें लोन होनेके बाद जो आत्मज्ञान होता है, वही ज्ञान है; और पृथिवीसे आदि लेके तत्त्व-समूहका जो ज्ञान है उसीको विज्ञान कहते हैं। और भी थोड़ा-सा स्पष्ट करके,-आत्मा हो सब इस इंढ़ धारणामें जो चैतन्य लाभ होता है, उसीको ज्ञान कहते हैं; ज्ञानका सहायता करके पुखानुपुख रूप
आलोचनासे तत्त्व समूहके पृथक रूपमें विशेष प्रकारके जो पूर्ण स्वरूपबोध होते हैं, वही विज्ञान है । सीधी बातमें, “सोऽहं"-यह ज्ञानही ज्ञान है, इस ज्ञानको छोड़ करके और जितना है वह सब विज्ञान है । ज्ञान और विज्ञान परस्पर सापेक्ष है। ज्ञानके परिपाक भोगके बाद निम्न दृष्टि होनेसे ही विज्ञान लाभ होता है, और विज्ञानका परिपाकके बाद ऊद्धमें स्थिर दृष्टिके अटक रहनेसे ही ज्ञान लाभ होता है।। ४१ ॥
* साधनामे पहले पहले अन्तरके अविषयको धारणा ही नहीं होती। तब केवल गुरु-दशित पथमें सतत लक्ष्य तथा गुरुवाक्यमें अटल विश्वास रखके, मूढ़ सरिस यथा विधि क्रिया करनेसे ही, अन्तरके भीतर प्रवेश करनेको शक्ति आती है; पश्चात् संयम अभ्याससे किसी प्रकारको आयास पाने नहीं होता। अभ्यासके मियम षष्ठ अः में देखो॥४१॥