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श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीभगवानुवाच । बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५॥ अन्वयः। श्रीभगवानुवाच । हे परन्तप अर्जुन ! मे ( मम ) तव च बहूनि जन्मानि व्यतीतानि ( गतानि ); अहं तानि सर्वाणि वेद ( वेद्मि ), त्वं न वेत्थ (जानासि ) ॥५॥
अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं। हे परन्तप अर्जुन ! हमारा और तुम्हारा बहुत जन्म बीत गया है; सो सब मैं जानता हूँ, किन्तु तुम नहीं जानते ॥ ५॥
व्याख्या। नामरूपात्मक आवरणके भीतर चैतन्यका प्रवेशका नाम जन्म है। प्रावरण जो कुछ, सबही प्रकृतिके हैं। प्रकृत्ति (अव्यक्त)~महत्, आत्मा (अहंकार ), बुद्धि, मन, तन्मात्रा, इन्द्रिय, इत्यादि रूप २४ तत्व करके विभक्त । इसके प्रत्येक ठो ही एक एक आवरण है। __ प्रकृति-पुरुष के विच्छेदका अवकाश ही है अव्यक्त। यह अव्यक्त ही है चिदाकाशे। यही प्राकृतिक स्फुरणका बीज स्वरूप है अर्थात् प्राकृतिक पदार्थोंके सृष्टि-स्थिति-नाशका मूल उपादान है; इसलिये इसको मूला प्रकृति कहते हैं । इस चिदाकाशमें महत् वा चित्त-संक्रम स्थलमें चैतन्यका ज्योति प्रतिफलित होता है; यह प्रतिफलित ज्योति ही चिज्ज्योति वा विवस्वान है। यह प्रथम माया-विकाश कह करके, इसको आदित्य कहते हैं। पश्चात् विकार मिश्रण होयके विक्स्वान से महत् तत्त्व अर्थात् चित्त उत्पन्न होता है, महत् ही मनु वा मन * है। विवस्वामसे उत्पन्न हुआ कह करके वैवस्वत। चित्तके बाहरी तरफ जिस स्थानमें चैतन्य-ज्योति प्रतिफलित होयके विवस्वान् हुआ, उसी स्थानके सम सूत्रपातमें अव्यक्त और चित्तके संयोग-स्थलको कूट
* सष्टिमुखी अन्तःकरण ॥५॥