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श्रीमद्भगद्गीता आत्मबुद्धि द्वारा अर्थात् “मैं सबसे श्रेष्ठ तथा निर्विकार हूँ, काम मुझको स्पर्श कर नहीं सकता, तिसपर भी जो मैं विमोहित होता हूँ, वह मेरा भ्रममात्र है-जैसे लड़के लोग चक्करवाले खेलमें घूमते घूमते
आंख मूंदकर गिर पड़ते पश्चात् पृथिवीको घूमते देखते हैं, वैसी दशा मुझे भी है, मैं लगा लेता हूँ मात्र" इस प्रकार दृढ़ विश्वासके साथ मनको स्थिर निश्चल करो, ऐसा होनेसे ही मन “मैं-मय” हो जावेगा। मन कामके सचारक होनेसे भी, काम और उसमें सश्चरण कर नहीं सकेगा इसलिये कब्जेमें ( वशमें ) आवेगा, तब उसका विनाश भी किया जावेगा। कामको जय तथा नष्ट करनेके लिये यही एक मात्र उपाय है, इसीलिये कामको "दुरासद” ( अतिकष्ट करके वायत्त किया जा सकता है ) कहा गया॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे कर्मयोगो नाम
तृतीयोऽध्यायः।