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श्रीमद्भगवद्गीता होगा। यह ज्ञान इस चतुर्थ अध्यायमें वर्णना किया हुआ है इससे इस अध्यायका नाम है ज्ञानयोग। ज्ञानयोग जो सनातन-अव्यय, वही समझानेके लिये इस श्लोकमें ज्ञानयोगका विस्तारक्रम देखा देके, ज्ञानयोग कैसे अब लोपको पा गया, उसका कारण निर्देश किया गया है।
योग-क्रिया द्वारा जो "कोटीसूय्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटो सुशतिलं" ज्योतिर्मण्डल देखनेमें आता है, वही विवस्वान् वा सविता है, वह स्वप्रकाश है, उसीके ज्योति करके विश्व प्रकाशित है। उस सविताके उदय होनेके बाद, उसमें चित्त स्थिर रखनेसे हो, “सवितृ-मण्डलमध्यवत्तीर्नारायणः" गोलोकनाथ प्रत्यक्ष होते हैं; वही अहं-कूटस्थचैतन्य श्रीकृष्ण है। उस विवस्वानसे ज्ञानस्रोत ( चिज्ज्योति-प्रवाह ) नीचे मुखमें प्रवाहित हो करके अन्तःकरणमें आती है। अन्तःकरण चित्त-अहंकार-बुद्धि-मन इन चार अंशमें विभक्त होनेसे भी सृष्टि मुखमें मन प्रधान होके रहनेसे एक बातमें इसको मन कहा गया है; फिर ब्रह्ममुखमें चित्त प्रधानरूप करके सबके अगाडी रहनेसे, इसको चित्त नाम करके व्यक्त किया गया है। अन्तःकरण की सृष्टिमुखी वृत्ति वा मन ही मनु है। ज्ञानस्रोतके अन्तःकरणमें आनेके बाद, निश्चयात्मिका वृत्ति-समुद्भत अन्तर्दृष्टि वा मानस-नेत्र ( प्रज्ञाचक्षु ) प्रकाशित होती है; अन्तर्जगतको ईक्षण करने वाले यही मानस नेत्र वा प्रज्ञाचक्षु ही इक्ष्वाकु है। अन्तरमें ज्ञान वा चैतन्यके उदय होने के बाद, बाहरमें ज्ञानेन्द्रिय सकल द्वारा उसका बोध उत्पन्न होता है; ये ज्ञानेन्द्रिय सकल ही राजऋषिगण हैं। (पंचमहाभूतोंके व्यष्टि सात्विकांशसे ज्ञानेन्द्रिय सकल उत्पन्न होनेसे भी, इन सबकी क्रिया समूह रजोगुणका है। इसोलिये ये सब राजऋषि) है। ज्ञान वा ज्ञानयोगका विकाश, इस रूप करके एकसे अपर क्षेत्रमें प्रकाशित होता है। इससे ज्ञान वा योग परम्परा प्राप्त है, और इसके फलका शेष नहीं।