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श्रीमद्भगवद्गीता भिन्न भिन्न क्रम है। इसलिये जो अन्तर्मुखी वृत्ति लेके आत्मानुसन्धानमें यत्नशील हैं, वह भी ज्ञानी हैं; और जो ज्ञानकी ऊर्द्ध सीमा में उठ जाके ज्ञानकी स्वरूप-अवस्था पा चुके, वह भी ज्ञानी हैं। पृथकता यह है कि, प्रथम सोपानके निम्नतमस्तरमें, और द्वितीय ऊर्द्धतम स्तरमें अवस्थित है। जो आज्ञा पार होके ऊर्द्धतम स्तर में स्थिति लाभ किये हैं, वह पुरुष जीवन्मुक्त है-उनके सकल श्रावरण क्षय हो गये। परन्तु जो आज्ञाके नीचे हैं, उनका मन अकांक्षाकी खिंचाई में रहनेसे, अन्तःकरणमें नये-नये (पुरानेको नवीन बनाय करके ) भोगकी इच्छायें उठती रहती हैं, यह इच्छा पर्दाराशि सदृश सन्मुखमें खड़ी रहके जिस ज्ञान-ज्योतिसे अन्तर्जगत् लक्ष्य होते आवें, वही ज्योतिको झाप देवे; जिसे करके अन्तष्टि खुलती नहीं । मनको अभ्यास और वैराग्यसे इच्छारहित करनेसे भी प्रकृतिका ऐसा ही प्रभाव है कि, अनजान भाव करके भी मन इच्छाके वशमें आ पड़ता है। इसीलिये काम ज्ञानियोंका नित्यबैरी है *। और भी यह अनलके स्वरूप है । अनल पर प्रकाशके होनेसे भी अपने, काष्ठ सरिस किसी आश्रय बिना प्रकाशको नहीं पाता; फिर वह आश्रयको ही सन्तप्त, दग्ध और नष्ट करता है। आश्रय जबतक रहता है, तबतक ही अनलका प्रकाश है, आश्रय क्षय हो जानेसे ही अनल भी विलुप्त होता है। पर्वत प्रमाण जलनेवाले द्रव्यका संयोगसे भी अनलका परिपूरण नहीं होता, वरंच वे अनल क्रमशः अधिकसे अधिकतर शिखा विस्तार करके ग्रास करता रहता ही है। तद्वत् काम भी अपने आश्रय मनको
___* अज्ञानियों के लिये बिषय-भोग-समयमें काम सुखके हैं, किन्तु उसके परिणाम फल करके सो दुःखके हैं। ज्ञानीको तदर्थीय कर्म बिना दूसरे विषयभोग मात्र ही दुःखके जानों; क्योंकि, मनमें कामनाका संचार होनेसे ही अन्तराकाशमें कमल आवे, आत्मज्योति भी झप जावे । काम मनको जवही आकर्षण करे, तबही साधकको दुः-ख विना सु-ख नहीं होता। इसलिये काम ज्ञानीका नित्यवैरी है ॥ ३९ ॥