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तृतीय अध्याय
१३५ सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ष्ट्रा पुरोवाच प्रजापतिः। .
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥ अन्वयः। पुरा ( सृष्ट्यादौ ) प्रजापतिः सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा उवाच-अनेन ( यज्ञेन ) प्रसविष्यध्वम् ( आत्मोन्नतिं लभध्वम् ), एपः वः (युष्माकम् ) इष्ठकामधुक ( अभीष्टभोगप्रदः) अस्तु ॥१॥
अनुवाद। सृष्टिके प्रथम प्रजापतिने सहयज्ञ प्रजा सृष्टि करके कहा था-इस यज्ञ द्वारा तुम सब उत्तरोत्तर आत्मोन्नति लाभ करो, यह तुम सबका इष्टफलप्रद हो ॥१०॥
व्याख्या। पितृ-शरीरसे मात्र गर्भ में जानेके समय में ही सन्तानमें पितृप्राण संचारित होता है ; उसी प्राणमें मातृप्राण मिल करके प्राण प्रवाह प्रारम्भ होता है। इस समय शरीर रूप ब्रह्माण्डके (केवलमात्र) भणुसे भी अणुके आकार करके सप्तस्वर्गकी सृष्टि होती है ; उसी सप्त स्थानमें प्राणरूपी महामाया (जगद्धात्री) क्रीड़ा करके सप्तस्थान-निहित देवी शाक्तियोंको सचष्ट करती हैं, इस करके सप्तधातु वृद्धि प्राप्त होकर शरीरकोष बड़ा होता रहता है। इसलिये प्रजा सह यक्ष है। मनुष्य-सम्बन्धमें प्रजापति दो हैं ;-एक हैं प्रथम जन्मदाता, और एक हैं दूसरा जन्मदाता। प्रथम जन्मदाताजनक, द्वितीय जन्मदातागुरु। ये दोनों ही कहते हैं, "अनेन प्रसविष्यध्वम्" इत्यादि । जनकका कहना "आदि इच्छाशक्ति अन्तर्गत कह करके अप्रकाश है ; गुरुका कहना उपदेशके अन्तर्गत कह करके प्रकाश है। श्रीगुरुदेव शिष्यको बाहरसे अन्तर्जगतमें प्रवेशका अधिकार देकरके द्वितीय जन्म मण्डलमें ही रहते हैं, तन् पश्चात् कालवश में कर्मफलके अनुसार पुनः संसारमें प्रवेश करते हैं। जब तक कर्म क्षय न हो तब तक ये आना-जाना रूप बन्धन-क्लेश भोगने ही पड़ता है। साधनासे सत्-संस्कारको वृद्धि हो करके कर्मक्षय होना पश्चात् बन्धन हीन हुआ. जाता है, मुक्ति होता है-"यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनेव सुखो शान्तः बन्धमुको भविष्यसि"-अष्टावक्र: ) ॥९॥
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