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श्रीमद्भगवद्गीता . सबका बिराम । आज्ञामें उसका प्रारम्भ होनेसे भी* सर्वत्रही इसका प्रभाव विभिन्न परिमाणमें विस्तृत हैं. वह प्रवाह ही ऊँच दिशामें क्रम अनुसार घणीभूत होते हुये, प्राज्ञामें अपने विशुद्ध सत्त्वामें परिणत होता है। इस स्थानमें एक अपूर्व व्यापारका संघटन देखनेमें आता है,—पूर्णसत्त्वप्रकाशके भीतर, नीचे ऊपरसे यथाक्रम करके रजो और तमा अति सूक्ष्माकार करके परस्पर मिलनेसे, एकाधारमें स्थिरताचंचलताका समावेश,-रजस्तमका मिलन-मुखसे राग रागिणी युक्त विविध छन्दका शब्द लहरी उत्थित;-झकार मंकारसे सप्रणव गायत्री वेद और ऋषिवाक्य समूह अतीव सुस्पष्ट और सुललित स्वरके साथ पश्चिम दिशामें उच्चारित,-देवता, गन्धर्व, ऋषि, यक्ष, रक्ष, किन्नर, ग्रह, विग्रह प्रभृति विश्व-प्रपंच सुनियमसे जैसे नाट्यमचमें अभिनीत होता है,-सृष्टिस्थितिलयका उत्स,-मन प्राण मोहित, चांचल्य विलुप्त,-एकवचनमें कहनेसे कहना होता हे कि, "इहैकस्थं जगत् कृतस्न सचराचरं" प्रकटित ( मूर्त्तिमान ) है। यह तमोप्रभाव युक्त, गानप्रधान. मोह नहीं अथच मोहमय आज्ञाक्षेत्रमें जो जाना जाता है, वही सामवेद-“म” है। उस रजतमोका संयोगविन्दुमें लक्ष्य ठीक करनेसे ही अतिस्निग्धोज्वला शुक्लवर्णा द्विभुजा त्रिशूल डमरुकरा वृषभारूढ़ा वृद्धा रौद्री शक्ति प्रत्यक्षा होती हैं; यह महाशक्ति ही सामवेदकी अधिष्ठात्री देवी 'सरस्वती'-गायत्रीकी तृतीय मूर्ति हैं।
आज्ञास्थित सत्त्वके भीतर रजस्तमोके संयोगस्थलको कूट कहते हैं। उस कूटके भीतर एक अनुपम सुवर्णोज्वल विन्दु ही अनादि विश्वनाथ महेश्वर हैं; उसी स्थानसे ही सरस्वती उत्पन्न हैं। उसी
___ * तीन गुण सर्वत्र ही विद्यमान है, किन्तु दो दो का प्राधान्य दिखाई देता है; जहाँ रजस्तम्भ प्रधान है वहां सत्व अभिभूत होकर विलुप्त अवस्थामें रह जाता है। जहां रजःसत्व प्रधान है, तहाँ तमो विलुप्त है; वेसे सत्वतमो प्रधान है, वहां रजो विलुप्त अवस्थामें रह जाता है ।। ४५॥