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श्रीमद्भगवद्गीता तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८॥ अन्वयः। तस्मात् महाबाहो ! यस्य इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वशः निगृहीतानि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥ . अनुवाद। हे महाबाहो! इस कारणसे कहा गया है कि, जिसको इन्द्रिय समूह विषयोंसे सर्वतोभावमें निगृहोता हुई हैं, उपीकी प्रज्ञा प्रतिष्ठिा हुई है । ६८॥ . व्याख्या। इसलिये शब्द-स्पर्शादि बिषयसे इन्द्रिय समस्तको निःशेषरूपसे ग्रहण करके संयमी होना पड़ता है, संयमी अर्थात् युक्त न होनेसे कोई साधन होता ही नहीं ॥ ६८॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने ॥ ६६ ॥ अन्वयः। या सर्वभूतानां निशा, संयमी तस्यां जाति; यस्यां भूतानि जाग्रति सा पश्यतः मुनेः निशा ॥ ६९॥
अनुवाद। सर्वभूतों की जो निशा ( रात्रि ) है, संयमी उमोमें जाग्रत रहते हैं; जिसमें भूत सब जागते हैं, उसीमें द्रष्टा मुनिको निशा है ।। ६९ ॥
व्याख्या। मन जब आत्मामें रहता है. इन्द्रिय सकल के लिये तभी निशा है-तब वो सब निश्चष्ट और अभिमृत अवस्था में रहते हैं, मन जब विषयमें रहता है, तब सकल इन्द्रियां जागरित और सचेष्ट रहती हैं, मनको आत्मामें रखना ही संयम (धारणा-ध्यान समाधिके एकत्र समावेश ) है, आत्मनिष्ठ साधक ही संयमी हैं। इन्द्रिय सकलही भूत हैं । इन भूत सकल की जब निशा होती, तब संयमी सजाग रहते हैं, अर्थात् तब उनकी आत्मामें अवस्थितिके हेतु वह उस समयमें स्थूल-सूक्ष्म-कारणात्मक विश्व-संसारके द्रष्टा वा सात्ती स्वरूप और उनका मन तब आत्मामें सम्यक लीन रहता है, इसी करके का