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द्वितीय अध्याय अनुषाद। अयुक्तकी बुद्धि ही नहीं, भावना भी नहीं; भाषामविहीनोंको शान्ति भी नहीं। अशान्तको सुख कहाँ ? ॥६६॥
व्याख्या। शम-दम-तितिक्षा-उपरति-श्रद्धा-समधानादि साधनचतुष्टय-सम्पन्न पुरुष युक्त है, ( ६ष्ट अः २३ श्लोक देखो)। जो प्रयुक्त है अर्थात् साधन-चतुष्टयसम्पन्न नहीं (१ म अः २ य श्लोक, पाद टीका देखो), उसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं है, इसलिये उसके बुद्धिको योग-मार्गका बुद्धि कही नहीं जाती ; और उसकी भावना भी * नहीं है ; अर्थात् आत्मज्ञानमें लक्ष्य ही नहीं होता, क्योंकि उसका चित्त विषय-रागमें रंजित रहनेसे वह दैव ज्योतिका विम्ब धारण कर नहीं सकता। भावना-विहीनकी शान्ति अर्थात् चित्तकी स्थिरता नहीं रहती, क्योंकि मन सर्वदा विषयमें मतवाला रहने से विश्रामका अवसर नहीं पाता। इस प्रकार अशान्त को सुख नहीं होता अर्थात् अन्तराकाश विषय मेघ करके ढका रहनेसे ज्योतिर्मण्डलका विकाश होता ही नहीं ॥ ६६ ॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। :
तदस्य हरति प्रज्ञा वायु वमिवाम्भसि ॥६॥ अन्वयः। मनः चरतां इन्द्रियाणां यत् अनुषिधीयते ( अनुगच्छति ), तत् हि अम्भसि वायुः नावं इब अस्य प्रज्ञा हरति ॥ ६॥
अनुवाद । वायु जैसे जलके ऊपर नौका ( तरणी ) को विक्षिप्त करता है, वैसे, मन विषयचारी इन्द्रियोंके भीतर, जिसके अनुगमन करता है, वही इसकी प्रज्ञापो हरण करती है ॥ ६ ॥
व्याख्या। साधकमात्रको ही मालूम है कि शब्दस्पर्शाद कोई एक विषयके ऊपर मनजानेसे ही आत्माभिमुखी बुद्धि नष्ट हो जाती है ।। ६७॥
* भाषना- अभावमें रह करके, भाष-संक्रम होय होय, ईटश समय सम्तारक वृत्ति ( साधनामें बोधगम्य)। ८ म अः३२ श्लोक "भार देखो।