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द्वितीय अध्याय शीत-उष्ण सुख-दुःख मैं-मेरा, अहं त्वं-ये द्वैत भाव मिट करके मनका विलय होता है; इसीको ही त्रिगुणातीत विष्णुपद कहते हैं ॥४॥
यावानार्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥
अन्वयः। सर्वतः सप्लुतोदके ( सति ) उदपाने (स्वल्पजलाशये ) यावान् अर्थः (प्रयोजनः वर्तते, न कोऽपि वर्तते इति भावः ), विजानतः ( ब्रह्मज्ञानससम्पन्नस्य ) ब्राह्मणस्य सर्वेषु वेदेषु ( ऋगादिषु ) तावान् अर्थ ( बत्त'ते, ब्रह्मज्ञानिनः निष्कर्मकत्वात् वेदे किमपि प्रयोजनं नास्ति इति सरलार्थः)॥४६॥
अनुवाद। जल करके सर्वस्थान प्लावित् हो जानेसे जगजनके उदपान्का ( स्वल्प जलाशयमें ) जितना प्रयोजन है, ब्रह्मज्ञान सम्पन्न ब्राह्मणों के लिये चारों वेदका भी उतना हो प्रयोजन है ॥ ४६ ॥ ..
व्याख्या। नदीके बाढ़के जलसे जब देश प्लावित हो जाता है, तब छोटा छोटा जलाशय यथा कूप आदिके उस जलमें डूब करके एकाकार हो जानेके बाद उस स्वल्प जलाशयका जैसे पृथक अस्तित्व नहीं रहता, जीवोंका जो कुछ प्रयोजन है सब उसी एक जलराशिमें सम्पन्न होता है, वैसे जो ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञान प्राप्त ) हो करके "विजानत” होते हैं अर्थात् सब जाननेको जान लेते हैं अर्थात् ज्ञातव्यके चरम सीमा विष्णुपदमें अवस्थित होते हैं, उनके लिये सब एक हो जाता है, वेद भी उनही में मिल जाता है, इसलिये वेदमें उनका और कोई अलहिदा प्रयोजन नहीं रहता ॥४६॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्माणि ॥४७॥ . अन्वयः। कम्मणि एव ते अधिकारः ( अस्ति ) फलेषु कदाचन मा ( अस्तु ); कर्मफलहेतुः मा भूः, अकर्मणि ते संगः मा अस्तु ॥ ४ ॥