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द्वितीय अध्याय
१०६ - व्याख्या : चित्त एकाग्र करके बिन्दु धर कर रहनेसे ही मनके ऊपर आधिपत्य करने वाली शक्ति उत्पन्न होती है, -"मन भी मनके अनुसार” होता है, उसीको मनीषी अवस्था कहते हैं, तब मनके मन- . में रहनेसे कर्मफल कोई आश्रय न पाके आपही श्राप क्षय हो जाता है। प्राकृतिक आवरण भेद होनेसे ( और किसी आवरणके भीतर
आना नहीं होता, अर्थात् जनम लेना नहीं पड़ता) शान्तिमय विष्णुपदकी प्राप्ति होता है। यह स्थिर निश्चय वाणी है ॥ ५१ ॥
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ १२ ॥ अन्वयः। यदा ते बुद्धिः भोहकलिलं (शरीराभिमानरूपं दुर्भेद्य दुर्ग ) व्यतितरिष्यति, तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च निर्वदं ( वेदनाशून्य ) गन्तासि ॥ ५२ ।।
अनुवाद। जब तुम्हारी बुद्धि ( 'मैं शरीर हूँ' यह मिथ्या भ्रम ) मोहरूप दुर्भेद्य दुर्ग अतिक्रम करेगी, तब, तुम्हारा श्रोतव्य ( जो सुनोगे ) तथा श्रत ( जो सुन चुके हो ) विषयमै निर्वेद ( वेदना शून्यता ) होवेगा ॥ ५२ ।।
व्याख्या। बुद्धि व्यवसायात्मिका होनेसे ही सब भ्रम मिट जाता है, मोह फिर नहीं रहता-शब्दस्पर्शादिके आवरणमें और मोहित होना नहीं पड़ता; तब श्रोतव्य* अर्थात् भविष्यत् तथा श्रुत अर्थात् भूत-इन दोनोंका ही ज्ञान ( वेदना ) नहीं रहता, केवल वत्तमान ही रहता है; अर्थात् नादके अच्छिन्न और अनाहत हो जाने से उसका श्रादि और अन्त नहीं रहता; प्रवाह निपट आनेसे आगा पीछा नहीं रहता, सबहो वर्तमान हो जाता है, तब कालस्रोत मिट जानेके बाद साधक स्वयं ही कालमें परिणत होते हैं। इसलिये उनमें ___ * लयमागम अन्तमें एकमात्र शब्द हो रहता है, कालनिणय करनेवाला और कोई दूसरा विषय नहीं रहता ; इसलिये श्रुति-ज्ञानसे कालको व्यक्त किया
गया ॥५२॥