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'भगवद्गाता
श्रीमद्भगवद्गीता आता है ; यही बिन्दु ही तारक ब्रह्म है, इनका और परिणाम नहीं, मन इनमें अटक जाता है। इस अवस्थामें इन्द्रियवृत्ति क्रिया-बिहीन होती है, अर्थात् विषय है, इन्द्रिय भी है, तथापि भोग नहीं-इस प्रकारको अवस्था होता है। तब आप ही श्राप सम्पादित विश्वव्यापारका द्रष्टा मात्र साक्षी स्वरूप बन करके सदानन्दमय होना पड़ता है। यह अानन्दमय ज्ञानावस्था ही अथर्ववेद-"ॐ" है । उस बिन्दुके भीतरसे एक हिरण्मय मृत्तिका प्रकाश होता है; इनही को परमशिव-नारायण-क्षेत्रातीत निरंजन पुरुष कहते हैं।
ये जो मूलाधारसे सहासार पर्य्यन्त क्षेत्रमें जो जो प्रत्यक्ष होते हैं, वह समस्त शब्दरूपका विन्यास-त्रिगुणको क्रिया बिना और कुछ भी नहों; जबतक मन रहता है, तबतक ही वह दृश्य-दृष्टा भाव रहता है। ये सब ही मायाको क्रिया है, इसलिये परिणामशील है । इसीलिये श्रीभगवान कहते हैं - "हे अर्जुन ! तुम निस्त्रगुण्य हो जावो" अर्थात् उस तारक-ब्रह्म निरंजन पुरुषमें मनके अटक जानेसे विलय प्राप्त होने पर जो होता है, वही हो जावो। वह विलय-अवस्था ही निस्वैगुण्य अवस्था-विष्णुका परमपद है। इस निस्त्रगुण्यका उपाय स्वरूप क्रमिक लक्षण कहते हैं-(१) "आत्मवान्'.... आत्माक्षेत्रमें अवस्थित, जब उपासक-“मैं” तथा उपास्य-“मैं” छोड़ करके और कोई किसीका ज्ञान नहीं रहता; निष्क्रिय अवस्था है। (२) 'निर्योगक्षेमः”-उस प्रकार अवस्था पानेके बाद योग अथ त् प्राप्त होनेके विषय और कुछ नहीं रहता, क्षेम अर्थात प्राप्त हुवा विषयकी रक्षा भी नहीं रहती; अतीत अनागत मिट करके केवल मात्र वर्तमान रहता है । (३) “नित्य सत्त्वस्थः”-सुषुम्नाके भीतर जो ब्रह्मनाड़ा है, उसके भीतरके आकाशको नित्यसत्व कहते हैं, यह क्षेत्रातीत तथा क्षेत्रगत नित्यस्थान है। प्राप्त-प्राप्तव्यको एक करके यहाँ श्रानेसे ही निरजन पुरुष दर्शन देते हैं। (४) “निन्द्वः "-नित्यसत्त्वमें उपस्थित होनेसे ही