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श्रीमद्भगवद्गीता . प्रवेश न करे, तबतक प्राण-कर्म अति प्रबल,-मन चंचल,-कूटस्थ मेघावृतके समान रहता है; दर्शन करनेके योग्य जो कुछ हैं वह सब दूर दूर में ईषत्-विद्युत-चमक करके प्रकाशित अस्पष्ट चंचल छाया सदृश, अस्पष्ट रूपसे दर्शन देता रहता है; इसीको ही दुःख कहा जाता है (दुः=दूरमें, खं-शून्य ) पश्चात् बज्राके भीतर प्रवेश करके मणिपुर चक्रमें उपस्थित होनेसे; वहां रजः सत्त्व समान परिमित होने से भी (दुःखमें) दूर आकाशमें सूर्य मण्डलके भीतरसे रक्तवर्णा द्विभुजा अक्षसूत्रकमण्डलुकरा हंसासनसमारूढ़ा कुमारी ब्राह्मी-शक्ति प्रत्यक्ष होती है, तब चारों दिशामें एक प्रकारकी चमक दिखाई देती रहती है; उस चमकके भीतर श्रवण शक्तिको फेंकनेसे मालूम होती है कि, क्या जाने क्या दूर पूर्व दिशामें* उच्चारित होता है, अच्छी तरह समझमें आता नहीं; जैसे एक दिवालके उल्टे तरफके परके भीतरसे बिना दांतका असल बुढ़ि मुखमें जल्दो जल्दी क्या जाने कौन क्या कहता है, इस प्रकार बोधमें आता है। मणिपुर पर्यन्त यह रजोबहूल कर्मप्रधान दुःखमय क्षेत्रमें जो मालूम होता है, वो ही ऋक्वेद-"अ"। वो जो शब्दोच्चारण श्रवगमें आता है, सो ही गायत्री मन्त्र, और वो ही देवी ही ऋक्वेदकी अधिष्ठात्री देवी "गायत्री"-गायत्री को प्रथमा मूर्ति है। ___ मणिपुर भेद करके चित्राके भीतर प्रवेश करनेसे ही चित्र विचित्र नाना प्रकारके रंग देखनेमें आते हैं। 'अष्टधा वलयाकारा" स्थान भेद करके ( क्रिया गुरूपदेशगम्य ) उठनेसे ही अनाहत चक्र मिलता है। उस अनाहतमें सत्त्व बारह अश, रजः चार अंश, और विशुद्ध चक्रमें सत्त्व चौदह अंश, रजः दो अंश है; इसलिये रजोका वेग कम हो जानेसे दुःखका परिमाण क्षय होकर सुखका उदय होता है,
* शरीरके सम्मुखदिक पूर्व, पश्चात्माग पश्चिम, दक्षिण तरफ दक्षिण, और वाम भागको उत्तर दिशा समझना चाहिये ॥ ४५ ॥