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द्वितीय अध्याय है। यह जन्म-मृत्यु बराबर होता ही रहता है, शेष नहीं होता। किन्तु निवृत्तिमार्गमें (अनुलोम वा योगमार्गमें ) थोड़ासा भी अप्रसर होने से अभिक्रमनाश और प्रत्यवाय रहता नहीं इससे लक्ष्य नित्यमें आकृष्ट होता है; इसलिये श्वासगत या शरीरगत चाहे जिस प्रकारकी मृत्यु हो, दो-पांच जन्मके बाद ही जन्म मृत्वृके प्रवाहके परपारमें पहुँचा जा सकता है। "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते" ॥४०॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥४१॥ अन्वयः। हे कुरुनन्दन ! इह ( मोक्षमार्गे कम्मंयोगे ) बुद्धिः व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मिका) एका (च भवति); हि ( किन्तु ) अव्यवसायिनाम् ( बहिर्मुखाना कामिना ) बुद्धयः बहुशाखा: अनन्ताश्च ( भवन्ति ) ॥४१॥
अनुवाद। हे कुरुनन्दन ! इस कर्मयोगमें बुद्धि व्यवसायात्मिा (निश्चयात्मिका) तथा एक होती है; किन्तु अव्यवसायियोंको बुद्धि बहुशाखायुक्त और अनन्त होती है ॥४१॥ ___व्याख्या। इस कर्मयोगसे बुद्धि "व्यवसायात्मिका" (वि=
आकाश, चक्षु+अव= विस्तार+सो=मरण ) अर्थात् आकाशमय चक्षुमें विस्तृत होकर स्थिर हो जानेसे स्थिरतामयी वा निश्चयात्मिका होती है, एवं “एका" अर्थात् कूटस्थमध्यस्थ "कोटी-सूर्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं” तारकके भीतर ( तारक नक्षत्रके भीतर) प्रविष्ट होनेके पश्चात् वह एकानन्द वा ब्रह्मानन्दमय हो जाती है। किन्तु. अव्यवसायियोंके (अ= निषेधार्थ+वि= विशेष+अव= निश्चय + सो उद्योग करना ) अर्थात् जो लोग विशेष निश्चयताके साथ उद्योग ( उत् =ब्राह्मीमार्ग में, योग-प्राणायामादि रूप प्रानुष्ठानिक क्रिया) नहीं करते, उन सबकी (बुद्धयः ) बुद्धि एकत्व छोड़ करके नानात्वमें: