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श्रीमद्भगवद्गीता दम मिट कर क्रम अनुसार ऊँचेमें उठकर एकहीमें परिणत हो जाता है। यह जो विषयसे समेट ले पाना आत्ममुखी बुद्धि है, इस बुद्धि द्वारा युक्त होनेसे ही ( एक मात्र प्राणायामसे ही उस प्रकार होता है, उसका प्रकरण गुरुपदेशगम्य है ) प्रारब्ध, संचित जो कुछ कर्मबन्धन है, समस्त ही सम्पूर्ण रूपसे छूट जाता है ॥ ३६ ॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥४०॥ अन्वयः इह (मोक्षमार्गे कर्मयोगे) अभिक्रमनाशः (प्रारम्भस्य नाशो निष्फलत्वं ) न अस्ति प्रत्यवायश्च न विद्यते; अस्य धर्मस्य (कम्मंयोगस्य) स्वल्पं अपि ( अनुष्ठितं ) महतः भयात् (जन्ममरणादिलक्षणात् रं-ससा भयात् ) त्रायते ( रक्षति ) ॥ ४०॥
अनुवाद । इस कर्मयोगमें अभिक्रमका नाश (प्रारम्मकी निष्फलता ) नहीं है प्रत्यवाय भी नहीं है; इस धर्मका अल्पमात्र भी अनुष्ठित होनेसे महत् भय ( जन्म मृत्युके प्रवाह ) से त्राण करता है ।। ४० ॥
व्याख्या। इस कर्मयोगमें अभिक्रमका (अभिसन्मुखमें, क्रम = गमन करना ) अर्थात् आत्माभिमुख गतिका नाश नहीं होता, क्योंकि "तदर्थीय” कर्म होनेसे इसका "अभाव” नहीं होता; वैसेही प्रत्यवाय वा विपरीत गति भी नहीं होती, क्योंकि योगी ६ ष्ठ अः ४४ श्लोकके अनुसार परजन्ममें भी पूर्वाभ्यासकी शक्तिसे अवश होकर
आत्माभिमुखमें बढ़ते जाते हैं। इस धर्मका (योगावलम्बनका) अल्पमात्र भी महत् भयसे त्राण करता है। संसारमें जन्ममृत्यु ही महत् भय है। प्रवृत्तिमार्गमें (विलोम वा संसारमार्गमें ) रहनेसे ही विषयमें लक्ष्य रहता है, किन्तु विषयके अनित्यताके हेतु उसी एक विषयका भोग शेष करके विषयान्तर लेनेके लिये उसका त्याग अनिवार्य है; अतएव मृत्यु निश्चय है। मृत्यु होनेसे ही पुनः जन्म होता